Monday, November 2, 2009

संतोषी भला कि महत्वाकांक्षी...?

 

बचपन से यह सुनते आते हैं कि संतोष का फल मीठा होता है। अपने मन को हमेशा संतोष करने लिए तैयार करना चाहिए। बड़े-बुजुर्ग यही सिखाते रहे। लेकिन मुझे लगता है कि किसी के भीतर यदि इस आत्म संतोष की अधिकता है तो इसका अर्थ है अपने आप को एक बीमारी की दावत देना।

प्राय: लोग एक-दूसरे को समझाते रहते है कि आप जितने में हो संतुष्ट रहो। संतोष ही जीवन का सबसे बड़ा सुख है।

गोधन गजधन बाजिधन और रतन धन खान।

जब आवे सन्तोष धन सब धन धूरि समान॥

भला आप ही बतायें जरा....। यदि यूँ संतोष करके हर आदमी बैठ जाय तब तो विकास करने की बात हो चुकी? मेरा तो मानना है कि हर इंसान के अंदर कुछ न कुछ पाने की चाहत होनी ही चाहिए। उसकी नयी सोच उसके जीवन की अभिलाषा को बढ़ाने और उसे पूरा करने वाली होनी चाहिए।

आज दुनिया कहां से कहां पहुँच गयी है? क्या यह उसके संतोष का फल है? नहीं, सब कुछ संतोष कर लेने से नहीं बल्कि कुछ नया पा लेने की अधीरता ने ही हमें वह सब कुछ दिया है जिसे देख हमारी पीढ़ी को पहली बार आश्चर्य होता है।

अब एक नवजात शिशु को ही ले लिजिए। ज्यों-ज्यों उसकी भूख बढ़ती है वह हाथ-पैर मारना, रोना-चिल्लाना शुरु कर देता है। इससे उसका शारीरिक और मानसिक दोनों ही विकास होता है। यह सब इसलिए होता है, क्योंकि उस बच्चे के अंदर संतोष नही होता कि वह चुप-चाप बैठ जाये। अगर बच्चा पालने में संतोष कर के बैठ जाता कि - मुझे कुछ नहीं करना है, मेरी माँ मुझे दूध पिला ही देती है तो मुझे क्या जरुरत है रोने और चिल्लाने की- तो शायद वह अपाहिज हो जाता!

हर इंसान के अंदर असंतोष का भाव होना चाहिए, यही असंतोष उसे उसके लक्ष्य की ओर धकेलता है।

आप किसी भी संतोषी व्यक्ति को देख लिजिए, उसके चेहेरे की निराशा और कब्जियत भरी मुस्कान ही बता देती है कि वह कितना खुश है!

इस तरह की संतोषी मुस्कान से तो अच्छा है चिल्लाते और चिघ्घाड़ते रहना। मन में महत्वाकांक्षा न हो, अधिक से अधिक सफल होने की कामना न हो, अर्जित करने कि लालसा न हो तो व्यक्ति कोई उद्यम क्यों करेगा? यही तो वह शक्ति है जो हमें आगे बढ़ने को प्रेरित करती है।

मानवता के विकास की कहानी में जो भी मील के पत्थर गाड़े गये वे किसी संतोषी ने नहीं बल्कि किसी महत्वाकांक्षी व्यक्ति की ही देन हैं| जय असंतोष।

(रचना त्रिपाठी)

17 comments:

  1. संतोषम परम सुखं ...मगर महत्वाकांक्षा न हो तो विकास यात्रा ही रुक जाये ...उम्दा सोच ...यहाँ तो गीता का श्लोक ही कारगर रहेगा ...
    कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन ..!!

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  2. मुझे लगता है कि कहीं कुछ कन्फ्यूजन है...महत्वाकांक्षा और असंतोष-दो अलग अलग बातें हैं. असंतोष तकलीफ देता है, जलाता है और महत्वाकांक्षा प्रेरणा देती है, उर्जा बनती है.

    जरा एक नजर पुनः विचारिये.

    आप संतोष और हताश एवं असंतोष और महत्वाकांक्षा के बीच के अंतर निर्धारित करें....मेरी सोच है और आपसे निवेदन है.

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  3. ऐसे देखें:

    असंतोष- निगेटिव एनर्जी का परिचायक.

    महत्वाकांक्षा- पाजीटिव एनर्जी का द्योतक.


    -शायद बात समझने मे आसानी रहे मेरी बात का अर्थ.

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  4. अब समीर जी के विश्लेषण के बाद तो ...बहरहाल खुद से संतुष्ट हो जाना निश्चय ही ठहराव की स्थिति है -और ऐसा नहीं होना चाहिए -यावत् कंठ गतः प्राणः यावत् कार्य प्रतिक्रया ..कहा ही गया है !
    दो समांतर विचार धाराएँ हिंदू जीवन शैली की रही हैं -भाग्यवाद और कर्मवाद ! प्रव्रत्ति और निवृत्ति और दोनों ही एक दूसरे से बढ़ चढ़ कर है ! (मेरा सरलीकरण कही गुण गोबर न करदे .एनी वे ...)
    होयिहें वही जो राम रचि राखा ,अजगर करे न चाकरी ,पक्षी करे न काम ....या फिर
    नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ,देव देव आलसी पुकारा
    अब जो रुचे वह चुन ले ! कल्याण दोनों से है !
    कोई जरूरी नहीं की दम्पति एक ही विचारधारा के हो -अगर दोनों ही
    उपर्युक्त अलग मार्ग के हों तो कितना सुंदर सामंजस्य निखर उठेगा हा हा

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  5. कोई भी व्यक्ति सदा महत्वाकांक्षी नही बना रह सकता। शायद इसी लिए संतोष को महत्व दिया गया है।
    बचपन मे उत्साही होना,
    जवानी में महत्वाकांक्षी होना,
    और अंत में जब इंसान शारिरिक क्षमता को बुढ़ापे मे गवां बैठता है तो संतोष करना ही सही है।

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  6. महत्वाकांक्षा जरूरी। एक महत्वाकांक्षा पूरी होने के बाद थोड़ा संतोष जरूरी और फिर महत्वाकांक्षी होइए। दोनों का संतुलन=मस्त, सफल जीवन

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  7. सब मनन और अपने SWOT विश्लेषण पर निर्भर करता है। आप स्वयं तय करते हैं कि आपको किस आयाम में संतोषी होना है और किसमें सतत महत्वाकाक्षी। आप अपनी सारी ऊर्जा सब प्रकार की महत्वाकांक्षा में नष्ट नहीं कर सकते। और जो सर्व प्रकार से संतोषी होता है, वह मृत होता है।

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  8. असंतोष और महत्वाकांक्षा में फर्क है. और अंधी महत्वाकांक्षा इंसान को गलत काम की और धकेलती है. इसलिए संतुलन जरूरी है.

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  9. चचा से सहमत।
    इतने दिनों बाद आप को पढ़ना अच्छा लगा। पूरे पचास कम एक दिन के बाद! आलस बुरी बला है।
    ____________________
    सृष्टि का नियम है - गति और परिवर्तन। बहुत बार ठहराव भी दिखता है जो सम्भवत: आवश्यक होता है। जिसने गति और ठहराव का संतुलन साध लिया, उसने सब कुछ पा लिया। सक्रियता असंतोष या महत्त्वाकांक्षा से ही हो कोई आवश्यक नहीं। बुद्ध या सन्यासी उदाहरण हैं - उनकी सक्रियता और अद्भुत कर्मशीलता के अलग कारण और आयाम होते हैं। .. जाने कितने आम जन भी वैसी ही गतिशीलता साधे बैठे हैं। हम आम जनों के लिए तो सक्रिय रहना और नित नूतन सन्धान हेतु प्रयासरत रहना ही श्रेयस्कर है - जीवन ज्ञान इसी प्रक्रिया में आ उतरता है। चरैवेति चरैवेति . . .

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  10. आप तो सिर्फ़ नियमित न लिखने के प्रति असंतोष का भाव जाग्रत करें।

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  11. सही है। अगर हर कोई संतुष्ट होकर घर बैठा रहे तो हो चुके एक्स्पिडिशन और पूरे हो चुके मिशन।

    एडमंड हिलेरी से एक इंटरव्यू में पूछा गया कि आपके जीवन की सबसे बड़ी असफलता क्या थी?

    जवाब था- मैं पूरी ज़िन्दगी अपनी बीवी को यह नहीं समझा पाया कि एवेरेस्ट फतह की जरूरत क्या थी!

    तो संतुष्टि यही अकर्मण्यता प्रदान करती है....

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  12. असंतोष को महत्वाकांक्षा के बराबर खड़ा करने का उद्देश्य मेरा भी नहीं है। समीर जी ने बहुत अच्छा विश्लेषण किया है।

    असंतोष- निगेटिव एनर्जी का परिचायक.
    महत्वाकांक्षा- पाजीटिव एनर्जी का द्योतक.

    ज्ञान जी का समाधान बहुत अच्छा लगा। मेरा भी मानना है कि एक व्यक्ति सभी क्षेत्रों में आगे नहीं बढ़ सकता। अपना दायरा तो चुनना ही होगा। लेकिन अपने चुने हुए क्षेत्र में यदि कोई लक्ष्य निर्धारित करके उसके लिए प्रयास किया जाय तो इसमें छिपी महत्वाकांक्षा आगे बढ़ने की ऊर्जा देती है।

    चर्चा को सार्थक बनाने के लिए आप सभी का धन्यवाद।

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  13. रचनाजी
    इतने दिन बाद आपको पढ़कर अच्छा लगा |समीरजी की बात से सहमत हूँ वैसे मै बहुत देर से आई |
    चर्चा अच्छी रही |

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  14. महत्वाकांक्षी होना अच्छी बात है
    किन्तु 'इदं न मम' का भाव हो तो अच्छा है.

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  15. बहुत अच्‍दे विषय पर बढिया विमर्श हुआ .. समीर जी की बातों से सहमति है !!

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  16. वाह बहुत अच्छा मुद्दा है ये. इच्छायें ही आगे बढने की प्रेरणा देतीं हैं.

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