Friday, January 17, 2020

नइहर के नेवता

       कादम्बिनी पत्रिका में 'नइहर के नेवता'
अपनी भतीजी वृंदा की शादी में सितली फुआ अपने गवने के पैंतीस-चालीस साल बाद पहली बार नइहर लौट रही थीं। इस बीच वे बहू-बेटों, नाती-नतकुर वाली हो गयी थीं। नइहर से सैकड़ों मील दूर उनकी ससुराल थी। उन दिनों आने-जाने के साधन कम थे और सामर्थ्य भी नहीं रही इस नाते तबसे अबतक वो मायके आ न सकीं थीं। आती भी कैसे भला? बाबा अपने में ही ताधड़ाम थे। जब एक बेटी को ब्याह रहे होते तो तभी अम्मा दूसरी को जन्म दे रही होती। यह सिलसिला खत्म ही नहीं होता।

अलबत्ता उनके पास जब कभी थोड़ी व्यवस्था बन जाती तो बेटियों के घर कहांर से भार भेजवा दिया करते थे। भार में रखी खाद्य सामग्री जैसे दही, चिउड़ा, कटहल, केला, कसार और वस्त्र आदि को वहाँ तक पहुँचने में भी कई दिन लग जाते थे। सितली फुआ के नइहर-सासुर की आर्थिक स्थिति 'जो गति तोरी सो गति मोरी' जैसी थी। दोनों एक दूसरे का मर्म भली-भांति जानते थे। इसलिए न तो बाबा को अपनी बेटी को कभी न बुला पाने का ज्यादा मलाल रहा और ना ही सीतली फुआ को उनसे इसकी कोई शिकायत रही।

समय बीतता गया और अब उनके बहू-बेटों का जमाना आ गया था। इस बार नेवता आया तो उन्होंने मां को नइहर भेजने में तनिक भी आना-कानी नहीं की। वैसे भी इस नेवते में उनकी टेंट से कुछ लगना नहीं था और अब काम ही क्या था उनका वहाँ जो वे उन्हे मना करते।

बड़े दिनों बाद शीतला देवी नइहर चली थी तो उनका शौक भी कुछ ज्यादा चर्राया था और जोश भी ख़ूब भरपूर था। आज सितली फुआ ने पाई-पाई जोड़कर वर्षों से इकठ्ठा किये हुए अपने चुरौंधे की पूरी गठरी  खोल दिया। वे अपनी छोटकी भउजी की तेजी का बखान लोगों के मुँह से सुन रखी थीं। रिश्तों में लेन-देन की उनके गणित के आगे आज तक कोई टिका नहीं था। भउजी शहर में पढ़ी-लिखी थी। घर में सभी उनका लोहा मानते थे। इसलिए सितली फुआ ने भी अपनी ओर से शादी की तैयारी में भरसक कोई कसर नहीं छोड़ी थी। वे जानती थीं कि भउजी का हिसाब बड़ा पक्का था। उन्होंने अपने आस-पड़ोस से लेकर नात-रिश्तेदार तक व्यवहार के लेन-देन में किसने, कब, किसको, क्या-क्या लिया-दिया उसकी बाकायदा एक डायरी बना रखी थी। उनके बारे में आम धारणा थी कि वो फटक के देती हैं और फटक के ले भी लेती हैं। इसलिए सितली बुआ ने अपनी औकात से अधिक तैयारी की थी।
रेलगाड़ी से छत्तीस घंटे लंबी यात्रा में उनके हजारों रुपये तो किराये-भाड़े में खर्च हो गये। अपनी भतीजी के वास्ते नेवते की साड़ी-साया-ब्लाउज का सेट और उसपर चूड़ी, बिंदी, सिंदूर और एक जोड़ी बिछिया भी रख ली थीं। उनकी लंबी गैर-मौजूदगी के दौरान आई हुई नई-नवेली और अब बाल-बच्चेदार हो चुकी दुलहिनों को मुंह-दिखाई देने के लिए कुछ न कुछ खरीद के रख लिया था। अबतक जितना अपने पास चुरा-पचरा के जुटा रखी थीं लगभग सबकुछ इस नइहर के नेवता पर न्यौछावर कर डाली थीं। बड़ी मुश्किल से तो उनका यहाँ आने का संयोग बन पाया था। आखिर लम्बा इंतजार खत्म हुआ था और वो रिक्शे से उतरकर नइहर के द्वार पर खड़ी थीं। द्वार पर नजर टिकी तो उन्हें अपने पुराने नइहर में पहले जैसा कुछ भी नहीं दिखा।पूरा नजारा ही बदल गया था। न तो वह छान्ह का पुराना घर था न चचरा और न ही दुआर पर गाय-गोरू। सब अलोप। उन्हें लगा कि वो भटक कर किसी और गांव में आ गई हैं लेकिन दुआर पर खड़े बूढ़े पीपल ने उन्हें भरोसा दिलाया कि यह उनके बाबा का गाँव ही है।

दरवाजे पर पहुँचते ही सामने बरामदे में तख्त पर बैठे बाबा का ठेहुना पकड़ चिघ्घाड़ मार कर रोने लगीं। इस तरह रोने की आवाज चौखठ के भीतर गयी तो सबको समझते देर न लगी कि सितली फुआ पधार चुकी हैं। घर के लड़के और मर्द बाहर आ गये और महिलाएं किवाड़ के पीछे दोगहा में जमा होकर उनका करुण- क्रंदन देखने लगीं। जब यह विलाप लम्बा खिंचने लगा तो वृंदा अपनी माँ से बुदबुदाते हुए बोली, "कहो न फुआ से बहुत हो गया अब चुप हो जाय... ये सब नाटक हमसे न होगा, माँ... बता देती हूँ...!" दूर खड़े शादी में आये रिश्तेदारों के छोटे-छोटे बच्चे सोच में पड़ गये। लगता है बूढ़ी फुआ जी को रास्ते में पुलिस ने मारा है इसलिये वो इतनी जोर से रो रही हैं। उन्हें क्या पता था कि उन दिनों लड़कियों को अपने ससुराल से मायके आने-जाने पर घर के पुरुष सदस्यों का पैर और महिलाओं का अँकवार पकड़  कर रो लेने की प्रथा थी। इसीलिए उनको इस प्रथा का निर्वाह करते देखकर वृंदा कि नाक-भौं चढ़ गई थी। अब उसकी वहाँ से विदा होने की बारी जो थी।

इस एकतरफा विलाप में फुआ की आँखों से जितनी अश्रुधारा बही थी शायद उतना ही उनपर  वृंदा का मन व्यथित हुआ था। उसे तो रोने का कोई अभ्यास ही नहीं था और वहाँ शादी में आये रिश्तेदारों में काका, मामा और भइया लोगों की संख्या भी बहुत ज्यादा थी। वह इस चुनौती से निपटने के बारे में सोच ही रही थी कि बाबा के तख्त से चिपका खड़ा नटखट निक्कू टुन्न से बोला, "तुम भी सीख लो, दीदी... विदाई के वक्त कैसे रोते हैं... सुना है कि जो लड़की अपनी विदाई पर जितना जोर-जोर से चिल्लाकर रोती है उसका मायका प्रेम उतना ही ज्यादा गहरा होता है।" वृंदा परेशान हो गयी। लेकिन वहाँ क्या कर सकती थी बेचारी, अपनी माँ को घूरने और झन्न-पट्ट करने के सिवाय।

बाबा की याददाश्त और नजरें दोनों कमजोर हो गयी थीं। उनका हाथ-पैर भी बेदम झूल रहा था। उन बूढ़ी टांगों पर फुआ की मोटी, थुल-थुल काया का भार असह्य हो रहा था। जब वह मन भर रो लीं तब बाबा बोले– "कउन ह रे?" 
फुआ की आंखों पर एक मोटा चश्मा चढ़ चुका था, परन्तु अकल पर अभी नहीं। वो भी तुरन्त समझ गयीं कि बाबा अब सठिया गये हैं। सट्ट से चुप हो गईं। बोली, " हsम, बाबा... सीतली... चीन्हत नाइ हउव?"

सुना था अपनी विदाई के वक्त फुआ जब डोली में चढ़ रही थीं तब भी इसी प्रकार ख़ूब टेहक्का कढ़ा-कढ़ा के रोयी थीं। पक्का उस समय अन्य ब्याहता लड़कियों के मुकाबले सितली फुआ के मायका-प्रेम का आंकड़ा सबसे अव्वल रहा होगा।

रोना-धोना पूरा हुआ तो फुआ ने अपनी पेटी खोली और सबको उपहार बांटा। वे जो साड़ी वृंदा के लिए लायी थीं वो छोटकी भउजी को फूटी आँख न सुहाई। उसे लेकर वह घर में आए सभी मेहमानों के सामने आँखें मटका-मटका कर इशारे से यह बताए जा रही थीं कि सितली फुआ वृंदा के लिए यही तीन सौ रुपये की साड़ी लायी हैं। जिस 'साध' से सितली फुआ ने यह नेग-नेवचार किया था उसकी धज्जियां उड़ रही थीं। भउजी फिर वृंदा के पास जाकर उसे साड़ी दिखाते हुए बोलीं– "जिज्जी को इतने के लिए वहाँ से यहाँ तक इतना कष्ट उठाने की क्या जरूरत थी...? नाउन के पहनने लायक भी तो यह साड़ी नहीं है... इससे अच्छा होता कि वहाँ से नेवते में एक लिफाफा ही भेज देतीं... मेरे किसी काम तो आता... "जेतना के कनिया नाहीं ओतना कहांरी"।

संझा-पराती का समय था। गीत गा रही महिलाओं के समूह में चकरा के बैठी सितली फुआ के कानों तक यह बात पहुँच गई। यह सुनकर वह सन्न रह गई। उनका कलेजा मुंह को आने लगा। कितने अरमान पाल रखे थी इस दिन के लिए! यहाँ एक-एक पल बिताना अब उनके लिए पहाड़ लग रहा था। पूरी शादी भर छुप-छुप कर रोती रही थीं।

शादी के अगले दिन जब वृंदा की विदाई हो रही थी तो भउजी उसकी सहेलियों को समझा रही थीं कि– "देखना कोई इससे लिपट-चिपट के ना रोये, नहीं तो इसका सारा मेकअप खराब हो जाएगा।" उधर सितली फुआ की आँखे बढ़ियाई जा रही थीं। आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। चश्मा उठा-उठाकर उन्हें अपनी हथेलियों से बार-बार काछे जा रही थीं। उधर वृंदा के सपनों की डोली उठी और इधर सितली फुआ के वर्षो के अरमानों का जनाजा। अपने हिया की पीर  वो कहतीं भी किससे?

(रचना त्रिपाठी)

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