Thursday, August 1, 2019

जमाने की छुआ-छूत

अभी एक सज्जन जिन्होंने #zomato के अपने खाने का ऑर्डर इसलिए कैंसिल कर दिया क्योंकि डिलीवरी बॉय उनके पसंदीदा धर्म का नहीं था। इससे हमें एक बहुत पुरानी बात याद आ गई। कई दशक पहले अपने बचपन की बात बता रही हूँ। मेरे घर में एक बड़की माई थीं, जो किसी का छुआ नहीं खाती थी, न ही किसी को अपनी रसोई में बिना नहाए घुसने की इजाजत देती थी। भोजन करने की घर में चाहे जितनी तेजी मची हो किन्तु वह किसी को अपनी बनाई रसोई छूने नहीं देती थीं। वे खाना खुद ही परोसती और सबको खिलाने के बाद अपने खाती थीं। रसोई की साफ-सफाई के मामले में उन्हें अपने सिवाय किसी पर भरोसा नहीं था। और तो और, भोजन बनाते वक्त बिना ब्लाउज के साड़ी लपेटे रहती थीं। पूछने पर कहती थी दर्जी मुसलमान होते हैं इसलिए वह उनका सिला कपड़ा नहीं पहनती हैं।

छुआ-छूत बहुत मानती थी। उनका धर्म भ्रष्ट न हो इसलिए वह पूरी जिंदगी इसी तरह रहीं। जब किसी सफर में होती थीं तो अपने पास थोड़ा चूड़ा-चीनी गठिया के रख लेती थीं। कहीं किसी आयोजन में जाने पर साड़ी की मैचिंग पेटीकोट का कपड़ा अपनी कमर में लपेट कर उसके दोनों छोरो को पकड़ कर आपस में गांठ बांध लेती थी, जिससे साड़ी पहनने में आसानी हो जाती थी। घर वालों के लाख समझाने के बावजूद उनका पूरा जीवन इसी प्रकार कटा। जिनको खाने की बड़ी तेजी मची रहती थी वे स्टोव पर रसोईघर से बाहर नमक डालकर गीलभात, खिचड़ी, अंडा, ऑमलेट बनाकर खा लिया करते और अपने काम पर निकल जाया करते थे। तब वहाँ #zomato या #swiggy जैसी सुविधाएं नहीं थी, नहीं तो शायद तब वे भी उसी से ऑर्डर कर के कुछ खाने का आइटम मंगवा लिया करते, जैसा कि अब वे भी अक्सर यही कर लिया करते हैं। घर के बाकी लोगों का इससे कोई लेना-लादना नहीं है कि zomato सर्विस कौन दे रहा है; उसके कर्मचारी हिंदू हैं या मुस्लिम; उसका रसोइया किस धर्म अथवा जाति का है? लेकिन बड़की माई के सिद्धांत के विरुद्ध कोई एक कदम आगे नहीं बढ़ा। क्योंकि वह खुद बहुत बड़ी तपस्या कर रही थीं।

अपनी सारी सुख-सुविधाओं को छोड़कर जाड़ा-गर्मी-बरसात सब कुछ सहती रहीं लेकिन अपने सिद्धान्त से कभी कोई समझौता नहीं किया। बल्कि पूरा परिवार उनके इस त्याग के साथ सहानुभूति रखता रहा। क्योंकि जिस दिन वह भोजन स्वयं नहीं बनाती थी उस दिन वह दूध-दही फल-मूल खाकर पूरे दिन रह जाती थीं लेकिन सुविधानुसार प्राप्त किसी भी प्रकार का सुस्वाद भोजन करना उन्हें स्वीकार नहीं था। आप सोच रहे होंगे कि वह कितनी पाखण्डी थी! परन्तु मैं इसे उनका अपने धर्म और शुचिता के प्रति अंधविश्वास ही सही एक प्रकार का समर्पण मानती हूं। अपने इस व्यवहार से उन्हें खुद भी बहुत तकलीफ़ उठानी पड़ी थी। लेकिन उन्होंने परिवार के किसी भी सदस्य को किसी का छुआ खाने अथवा कुछ भी खाने से नहीं रोका। उनका मानना था कि 'उठाया' हुआ भोजन मतलब– जो चीज बनाई कहीं और जाय और उसे वहाँ से उठाकर कहीं दूर ले जाकर परोसा जाय तो वह भोजन अशुद्ध हो जाता है।

आजकल बने-बनाये खाने को ऑनलाइन ऑर्डर से मंगाकर खाने-खिलाने का चलन जोर पर है। उस खाने की तैयारी में कई तरह के लोग लगे रहते हैं। किसने देखा उन्हें नहाते जो लोग इसमें शामिल है? छुआ-छूत की बात अभी यहाँ छोड़ दीजिए, लेकिन जिस भोजन को अपनी आंखों के सामने बनते न देखा गया हो उसकी निरापद शुद्धता (हाइजीन) की क्या गारंटी है? इसलिए, जो लोग #zomato, #swiggy, या किसी रेस्तरां में जाकर खाना पसंद करते हैं उन्हें भोज्य पदार्थों की तैयारी से विभिन्न स्तरों पर जुड़े व्यक्तियों की जाति, धर्म या सामाजिक प्रास्थिति पर प्रश्न उठाने का कोई हक नहीं है। परहेज करना है तो बड़की माई की तरह करिये वर्ना ऐसी मूर्खता का परिचय मत दीजिये।

(रचना त्रिपाठी)

2 comments:

  1. अपनी दादी के किस्से सुने हैं... वे गीले कपड़े में रसोई बनाती थीं और उनकी रसोई के कमरे में कोई दूसरा घुस नहीं सकता था. चचेरे दादा को तो स्वयं देखा है कि उन्होंने अपने स्वयं के हाथ का बना अथवा खून के रिश्ते के व्यक्तियों के हाथ का ही खाया. मजेदार बात यह रही कि उनकी एक रखैल भी थीं जो दूसरी जाति की थीं, जिसके बच्चे आदि भी थे, मगर उन्होंने न उनके हाथ की रसोई कभी खाई और न ही उनके बच्चों के हाथ की! :)

    समय के हिसाब से आदमी नहीं बदला तो उससे बड़ा मूर्ख और कोई नहीं.

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    1. आपने तो और भी विचित्र कथा सुना दी। :)

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