दैनिक जागरण 'साहित्यिक पुनर्नवा' में 'बाबू बनल रहें'
सात बहनों के बीच उनके इकलौते भाई थे-बाबू। बहुत देवता-पित्तर को पूजा चढ़ाने और देवकुर लीपने के बाद कोंख में आये थे बाबू। पंडी जी ने तो जन्म मुहूर्त के अनुसार दूसरा नाम रखा था लेकिन पूरा परिवार प्यार से उन्हें ‘बाबू’ ही कहता था। सभी बहनें उनसे अत्यधिक प्यार करती थीं। राखी के पर्व पर उनकी पूरी कलाई रंग-बिरंगी राखियों से भरी रहती थी। चार-पांच साल की उम्र में ही वो अपने दो-तीन भांजो के मामा बन चुके थे। उनकी बहनों द्वारा बाबू की देख-भाल और सेवा-सुश्रुषा देखकर मुझे कुढ़न होती थी। ‘बाबू’ की पसन्द-नापसंद का ख्याल रखना उनकी बहनों की दिनचर्या का अभिन्न अंग बन गया था। 'छोटिया' और 'बचिया' उम्र में बाबू से कुछ ही बड़ी थीं। छोटी करीब तीन साल और बचिया सिर्फ डेढ़ साल बड़ी रही होगी। वे दोनों चौबीस घण्टे परछाई की तरह बाबू के पीछे लगी रहतीं। सबसे बड़ी तीन बहनों की शादी हो चुकी थी। दो बहनें घर के चूल्हा-चौका झाड़ू पोछा बर्तन आदि कामों में लगी रहती थी।
माता जी का बच्चे पैदा कर लेने के बाद एकसूत्री कार्यक्रम अपने पति के पास बैठकर ठकुरसुहाती गाना था। वे 'मालिक' की सेवा-टहल के लिये अपनी लड़कियों का नाम लेकर हमेशा हांकते-पुकारते रहने में ही थक जाती थीं। संवेदना विहीन, भावशून्य, निष्क्रिय चेहरा उनकी पहचान थी। उनके लिए शीत वसंत में कोई फर्क नहीं था। मैंने उन्हें कभी हँसते हुये नहीं देखा। न कभी आँखे ही नम हुई। सुना था कभी-कभार बाबू की हरकतें उन्हें मुस्कराने पर मजबूर कर देती थीं।
बाबू को छोड़कर बाकी बेटियाँ अपने पिता को बाऊजी पुकारती थी; लेकिन बाबू उन्हें पापा कहा करते थे।
पापा कहीं बाहर से लौटते तो छोटिया और बचिया बाबू की पूरी दिनचर्या उनसे हंस-खिलखिला कर बताना शुरू कर देतीं - बाबू ने क्या खाया; क्या पिया; क्या पढ़े; आज कहाँ-कहाँ घूमने गए; उनके पैरों में चप्पल किसने पहनाया; उनकी किन-किन बच्चों से लड़ाई हुई; किस-किसको इन दोनों ने बाबू के लिए मारा; किसके-किसके घर शिकायतें लेकर गयीं; और आज बाबू को दिन में क्या-क्या खाने का मन हुआ...? कभी समोसे-पकौड़ियां तो कभी जलेबियां ! यह सब सुनकर अधेड़ उम्र के पापा की आखों में चमक आ जाती।
चूँकि उनका घर बीच बाजार में ही पड़ता था इसलिए बाबू की फरमाइश सुनते ही उनके खाने के लिए गर्मागरम समोसे, पकौड़ियाँ और जलेबी तुरन्त आ जाया करती थी।
बाबू के लिए पापा की आसक्ति देखते ही बनती थी। एक दिन गोधूलि बेला में बाबू ने कहा- "पापा, जब मैं सीढ़ी से चढ़कर छत पर आ रहा था तो मैंने अपने पैर के नीचे सांप देखा।” उस दिन उनके पापा की थूक गले में ही अटक गई। बदहवास से हो गये। पहले तो बाबू का पैर उलट-पुलट कर चारो तरफ बारीकी से देखा कि कहीं साँप ने काटा तो नहीं है...! बाबू ने बताया भी था कि सांप ने काटा नहीं है, फिर भी उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था।
फिर पापा का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। कड़कती आवाज में फट पड़े- “छोटिया... बचिया... आव इहाँ”। जैसे ही फरमान जारी हुआ दोनों जिन्न की तरह वहां तत्काल प्रकट हो गई लेकिन बाप का रौद्र रूप देखकर दोनो सहम गयीं। चेहरे का भाव बता रहा था कि जरूर बाबू के प्रति कोई चूक हो गयी है। संयोग से बाबू के पैर में चप्पल नहीं थी। बाऊजी ने उन दोनों की कड़ाई से क्लास लेनी शुरू की..."कहाँ थी तुम दोनों? बाबू के पैर में चप्पल नहीं है... सीढ़ी पर साँप था... कहीं काट लेता तो? जी भर डांट लेने के बाद बोले- जल्दी जाओ नीचे से 'हरिहर मरिचा' लेकर आओ...। मैं भी उनके पास खड़ी थी। यह सुनते ही झट से बोल पड़ी- पर चप्पल तो इन दोनों के पैर में भी नहीं है और नीचे जाने का रास्ता भी वही है। साँप ने इनको काट लिया तो? लेकिन उस समय मेरी कौन सुनता? सही बात तो ये है कि उन दोनों को मैंने पहले भी कभी चप्पल पहने हुए नहीं देखा था।
बाबू के लिए उनकी चिन्ता और बाबूजी के आदेश का प्रभाव ऐसा था कि वे उल्टे पाँव तेजी से नीचे की ओर सीढ़ियों पर दौड़ पड़ीं। कुछ उतनी ही तेजी से जितनी बाबू के लिए बाजार से कागज के ठोंगे में समोसे और पकौड़ियाँ लाने के लिए दौड़ती थीं। इस दौड़ में कभी-कभी तो उन्हें ठोकर खाकर जमींन पर मुँह के बल गिरते भी देखा था मैंने। कभी-कभी कागज के दोने में लाये जाते बाबू के मन पसन्द समोसे जलेबियाँ या पकौड़ियाँ इन बच्चियों को ठोकर लगने के कारण जमीन पर गिर जाते और उनपर धूल की परत चढ़ जाती। ऐसे में उनके पापा बाबू को वह खिलाने से सख्त मना कर देते थे। फिर डांट-फटकार लगाकर दुबारा उन्हें पैसे देकर सावधानी से लाने की हिदायत देते।तब यह डाँट उन लड़कियों को बुरी नहीं लगती क्यों कि उसके बाद उनकी जिह्वा को भी कुछ स्वाद मिल जाता। बाबू का सामान लाने के लिये कभी-कभी दोनों बहनें आपस में ही भिड़ जाया करती। यहाँ तक कि गिरी हुई पकौड़ियाँ कूड़े तक फेंकने के लिए भी उनके बीच मार-पीट हो जाती।
पंडित जी को किसी ने बता दिया कि रोहू का मूड़ा, अंडे की जर्दी और बकरे की कलेजी से शरीर में ताकत आती है और दिमाग बढ़ता है।फिर तो यह बाबू के लिए रोज का उठौना हो गया।
बाबू के बाबा अपने गाँव-जवार के नामी ज्योतिषी और कर्मकांडी पंडित थे।उनके घर की रसोई में बिसइना लाना वर्जित था। लेकिन बाबू के लिए इंतजाम हो गया। बाजार से एक आदमी कलेजी के चार-पाँच टुकड़े रोज घर दे जाया करता था। उसे घर की रसोई से दूर आँगन में भुना जाता था। यह काम छोटिया किया करती थी। कलेजी को खूब साफ धुलकर; नमक लगाकर छोटी स्टोव की आंच पर भुनती। यह बहुत कौशल का काम था। उसकी नन्हीं सी उँगलियाँ यह काम करते-करते बहुत अभ्यस्त हो गई थीं। फिर भी उसमें से एक-आध कलेजी कभी जल भी जाया करती थी।
बचिया वहीं खंभे से चिपककर खड़ी-खड़ी बाबू को भुनी हुई कलेजी खाते देख निहाल होती रहती। उसे अपलक निहारने के अलावा क्या करती भला! अच्छी भुनी हुई कलेजियां बाबू खा जाते और जली हुई छोड़ देते। यह बची हुई कलेजी इन दोनो बहनों के लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं होती। किसी-किसी दिन बचिया कलेजी को खुद ही पकाने के लिये छोटी से लड़ जाया करती।
एक दिन आँगन में बहुत पानी बरस रहा था। ओसारे में खाट पर बाबूजी बैठे हुए थे। पानी रुकने का नाम नहीं ले रहा था, बाबू को कलेजी खिलाने में अबेर हो रही थी इसलिए वे छोटिया से बोले- "यहीं स्टोव जला कर कलेजी भून दे।" छोटिया खाट के पास ही कलेजी भूनने के काम पर लग गई। वह बहुत सावधानी बरत रही थी फिर भी एक टुकड़ा कलेजी भभकते स्टोव की आंच पर लगकर काली हो गयी थी। बाबू ने उसे नहीं खाया। दूर से यह देखकर खुश हुई बचिया दौड़कर आयी लेकिन उससे पहले ही छोटी ने पूरा टुकड़ा अपने मुँह में डाल लिया। बचिया को उसकी यह अनदेखी देखी न गई और चिल्लाकर बाऊजी से बोल पड़ी-" बाऊजी, छोटिया जानिके करेजिआ जरा देहलस हे कि बाबू छोड़ि दीहें आ ऊ खाए के पा जाई!"
बाबूजी के गुस्से का पारा चढ़ गया। अपनी आँखे लाल किये चूल्हे के पास जलावन के लिए रखी आम की लकड़ी के ढेर से एक चइला उठाकर पिल पड़े। डर से थरथर काँपती छोटिया चिग्घाड़ मारकर बाबूजी के पैरों से लिपट गयी- "बाबूजी... अबकी माफ क दीं... अब कब्बो नाही जराइब!"
बिलकुल सच . हालांकि हाल के वर्षों में बड़े नगरों में / मिडिल क्लास की सोच में परिवर्तन हुआ है परन्तु अधिकाँश परिवारों का यही सच है. भाषा , शिल्प और बाल- मन/ मनोविज्ञान का सूक्षम विवरण कथ्य को आँखों के सामने रख दे रहा है. वाह !!
ReplyDeleteI really loved the fictional story that reflects reality of many families in more brazen way. We too were 5 sisters, and one brother, but to the best of my memory, he was the only one more threatened in the family. We all the sisters enjoyed all love and affection of parents in equitable fashion. Though we used to pamper our brother, but never at the cost of our happiness...ha ha ha.....Now on Story: It's beautifully written, language is free-flowing, and absolute communicative for the purpose. I rather call it a "Picturesque Story ", one can visualise the incidents......My hearty congratulations....Thanks to Skand Shukla to paste the link on my wall, at least I can claim that I have read a beautiful story in September 2015.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteस्तुत्य
ReplyDeletespeechless ......
ReplyDeleteVaah!
ReplyDeleteVaah!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अपनी सी कथा।
ReplyDelete