आपने श्रीमती रागिनी शुक्ला की लिखी दो कहानियाँ दुलारी और कर्ज शीर्षक से सत्यार्थमित्र पर पढ़ी और सराही हैं। रागिनी दीदी की लिखी एक और मार्मिक कहानी यहाँ प्रस्तुत है। यह कहानी भी एक वास्तविक पात्र के दुखड़े को सच-सच बयान करती है:
हत्भाग्य दादी के यहाँ आज सुबह से ही चहल-पहल थी। मुहल्ले में सभी उन्हें दादी ही तो कहते थे। यूँ तो वे यहाँ अब अकेले ही रहती थीं, लेकिन आज घर में बहू-बेटे से लेकर नाती-पोते तक सभी आए हुए थे और दादी को सजा-सवाँर कर तैयार करने में जुटे थे। दादी परिवार के सदस्यों का नया रूप और व्यवहार देखकर चकित थीं। उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि माजरा क्या है? बहूरानी दादी को नई, सफेद, स्वच्छ चाँदनी सी चमकती हुई साड़ी पहनाने लगी। महीनों से उलझे बालों को जल्दी-जल्दी सुलझाने का प्रयास करती। इतने में उसका बेटा दादी के पैरों में मोजे पहनाने लगा, बड़ी पोती ने अपनी नई चप्पल लाकर पहना दिया। उनके बेटे ने अपनी नई पैंट-शर्ट चढ़ा ली थी। किराये का टैंपो भी आकर दरवाजे पर खड़ा हो गया। दादी को खिला-पिला कर चलने को तैयार किया गया। आखिरकार दादी ने पूछ ही लिया, “हमें जाना कहाँ है?” बहू बड़े प्यार से बोल उठी, “अम्माजी आप जानती नहीं हैं, आज १५ अगस्त है। कलेक्टर साहब ने आपको सम्मानित करने के लिए बुलाया हैं। …इस गाँव-शहर में जितने भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हैं या उनके परिवार में कोई बुजुर्ग हैं, उन लोगो को बुलाया गया है। आज सबका सम्मान किया जाएगा।” “सम्मान!” यह शब्द तो दादी का साथ कबका छोड़ चुका था। टैम्पो में बैठते हुए दादी की आँखों में अपना अतीत नाच उठा। बर्षों पहले गुजर चुके दादाजी की याद ही बची है अब। देश में आजादी की लड़ाई अपने अन्तिम दौर में थी। देश को आजाद कराने के लिये वे महीनों घर नही आते थे। कभी अचानक रात के अंधेरे में आते और मुँह-अंधेरे ही निकल जाते। उनके पास ढेरों पैतृक सम्पत्ति व जगह-जमीन होने के बावजूद उन्होंने अपने घर को सुखी बनाने की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। दादी अकेले घर में बैठी उनकी राह देखती, लेकिन भारत माँ आजाद नहीं थी इसलिए दादा जी को घर की ओर देखने की फुरसत नहीं थी। देश आजाद होने से पहले ही वे भारत माता के चरणों में शहीद हो गये। उनके गुजरने के बाद विधवा का जीवन एकाकी हो गया। उस अकेलेपन को दूर करने के लिए दादी ने अपने भाई के बेटे को गोद लिया। उसकी बुआ से बुआ-माँ बन गयीं। दादी ने बड़े ही प्यार से अपने भतीजे को दत्तक पुत्र बनाकर उसका पालन-पोषण किया। उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की पत्नी होने के नाते जो पेंशन मिलती थी उन पैसों से बेटे की हर फरमाइश पूरी करतीं। अपने सुखद भविष्य की आशा लिये उन्होंने उस बेटे को बड़ा किया। जिस तरह माली अपने पौधों को इस उम्मीद में सींचता है कि उनमें फूल आये तो उसे देखकर मन खुश हो जाये, घर-आँगन में रौनक आ जाए और चारों तरफ हरियाली और सुख का एहसास हो, दादी ने उसी उम्मीद में अपने बेटे को बड़ा किया। लेकिन बेटे ने बड़ा होते ही अपने रंग दिखाने शुरू कर दिये। सबसे पहले महीने मे जो पेंशन मिलती थी उसकी पासबुक उसने अपने हाथ में ले ली और हर महीने माँ से अंगूठा लगवाकर पैसे उड़ा लेता। जमीन-जायदाद की देख-भाल करना तो दूर उसे बेचने के लिए उसने माँ को मारना पीटना भी शुरू कर दिया। माँ ने हमेशा उसे समझाने की कोशिश की लेकिन बेटे को मुफ़्त के पैसे उड़ाने की आदत पड़ गयी थी। बूढ़ी माँ ने सोचा कि अगर बेटे की शादी हो जाए और कन्धे पर परिवार की जिम्मेदारी आ जाए तो यह शायद सुधर जाए। उन्होंने रिश्तेदारों से कह-सुनकर उसकी शादी तय कर दी। बड़े ही अरमान से अपने बेटे को सजाकर, दुल्हा बनाकर बारात भेंजा। नई बहू का उत्सुकता और उत्साह से इंतजार करने लगी। उन्होंने अपनी बहू के लिए दरवाजे से लेकर अंदर तक पियरी (पीले रंग में रंगी हुई धोती) बिछायी, ताकी बहू के पैर जमीन पर न पड़े। उन्हें लगा शायद बहू बेटे को सम्भाल ले जायेगी, लेकिन किसे पता था वह उससे भी चार कदम आगे निकल जाएगी। बूढ़ी माँ का सहारा बनना तो दूर, उसने माँ का घर मे रहना भी मुश्किल कर दिया। जिस भारत माँ को आजाद कराने के लिए एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ने अपना पूरा जीवन लगा दिया, उसी की पत्नी आज अपने ही घर में आजाद नहीं थी। अब जमीन-जायदाद ज्यादा तेजी से बिकने शुरू हो गये और माँ ने जब-जब उसका विरोध किया, तब-तब उसे बेटे-बहू से मार खानी पड़ी। बूढ़ी दादी अब अपने ही घर में डरी-सहमी रहती। हार कर सब कुछ सहते रहना उन्होंने मन्जूर कर लिया था। जब-जब घर में बहू को बच्चे होते या दूसरा कोई कार्यक्रम होता दादी अपना सब दुख भूलकर ‘सोहर’ या ‘संझा-पराती’ गाना नहीं भूलती। बेटे ने एक-एक करके जब यहाँ की सारी जमीनें बेच दी तो उसे अपने पैतृक गाँव की याद आने लगी और वह अपने भाई बंधुओं के साथ रहने का निर्णय लेकर चला गया। बेचारी बुढ़िया दर-दर भटकते हुए भिक्षा मांगकर अपना जीवन चलाने पर मजबूर हो गयी। बेटे-बहू ने जाते-जाते बूढ़ी माँ का घर तक बेच दिया। जब वह उनके साथ रहने के लिए मायके गयी तो उसे बार-बार एहसास दिलाया गया कि यहाँ तुम्हारा कुछ भी नहीं है। बेचारी वहाँ से लौट आयी थी। अपने पति के बिक चुके मकान के एक कोने में रहने लगी। आज दादी जहाँ भी जाती उसके दुख से सब दुखी होते लेकिन उस बिगड़ैल बेटे से कोई नहीं पूछता कि उसकी बूढ़ी माँ दर-दर की ठोकर क्यों खा रही है? दिन भर तो वह घूम-घूम कर भिक्षा मांगती और शाम को यदि किसी के दरवाजे पर रूकती तो उसे वहाँ से जाने के लिए कह दिया जाता। सबको यह डर होता कि अगर वह मर गई तो कौन उसका क्रिया-कर्म करेगा? लेकिन आज दादी को बेटे-बहू सुबह से ही बड़े प्यार से पुचकार रहे थे। बेटा तो महीने के अन्त में केवल एक बार उसकी पेंशन निकालने और उड़ाने के लिए आता था। आज महीने के बीच में ही सबको आया देखकर उसे हैरानी हो रही थी। आखिर ऐसा क्या होने वाला है आज? दादी इसी उधेड़-बुन में उलझी हुई थीं तभी टैपू की खड़खड़ बन्द हो गयी। बेटे ने बताया कि मन्जिल आ गयी है और उसने दादी की बाँह पकड़कर नीचे उतार लिया। समारोह स्थल की भव्य सजावट देखकर दादी चकित रह गयीं। वहाँ कार्यक्रम की तैयारियाँ देख दादी फूली नही समा रहीं थीं। झक सफेद कपड़ों का बड़ा सा पाण्डाल लगा था। भारत माता के तिरंगे झण्डे चारो तरफ लहरा रहे थे। जिले के सभी बड़े अफसर और गणमान्य लोग जुटे हुए थे। जमीन पर लाल-हरी कालीन बिछी थी, लाल फोम की गद्दी लगे हुए सोफे पड़े थे, चारों तरफ खाकी वर्दी में पुलिस वाले खड़े थे। दादी को लगता सब उन्हें सलामी देने के लिए खड़े हैं। आज दादी बहुत प्रसन्न थीं। कार्यक्रम पूरी भव्यता से प्रारम्भ हुआ। बुजुर्ग सेनानियों या उनकी विधवाओं में से एक-एक कर के सबको बुलाया गया। दादी की बारी भी आयी। कमर से झुक कर चलने वाली दादी कुछ सीधे चलने का प्रयास करती हुई मंच तक पहुँची। कलेक्टर साहब ने सम्मान स्वरूप पच्चीस सौ रूपये और एक शॉल भेंट करते हुए जब झुककर प्रणाम किया तो दादी के चेहरे पर गौरव का भाव चमक उठा। खुशी के आँसू छलक आए। धीरे-धीरे समारोह समापन की ओर चल दिया। बेटे ने एक आज्ञाकारी पुत्र की तरह माँ का हाथ पकड़कर टैम्पो में बिठा दिया और दादी वापस लौट पड़ीं। लेकिन यह क्या…? कुछ दूर चलने के बाद टैम्पो रोअक दिया गया। दादी को नीचे उतारा गया। टैम्पो का भाड़ा देने के लिए ‘सम्मान’ वाले पच्चीस सौ रूपये बेटे के हाथ में आ चुके थे। माँ को वहाँ से गाँव की ओर जा रहे एक ट्रैक्टर की ट्रॉली में बिठा दिया गया। बेटा उन रुपयों के साथ बाजार में गुम हो गया। घर पहुँचने पर बहूरानी ने झटसे साड़ी उतरवा ली। व्यंग्य वाण चलाये जा रही थी- “क्यों माँ जी…! सम्हल कर नहीं बैठ पा रही थीं। …नई साड़ी में मिट्टी पोत आयीं।” पोती ने अपने चप्पल निकाल लिए और धोकर रखने लगी। पोते को अपने मोजे खराब लगने लगे। बेचारी बुढ़िया ने एक कोने में पड़ी कई जगह से फटी और गाँठ लगी धोती जमीन से उठकर पहना और घर के दूसरे कोने में जाकर टूटी चारपाई पर लेट गयी। अब उसकी ओर देखने वाला कोई नहीं था। लेटे-लेटे उनकी आँखो में सम्मान समारोह का दृश्य नाच उठा। कितने बुजुर्ग सेनानी आए थे। काश वे भी उनमें एक होते। उनकी याद करते-करते आँख लग गयी…। किसी ने खाना खाने के लिए भी नहीं जगाया। सुबह होने पर घर वालों ने देखा कि दादी की चारपायी खाली है। उन्हें ढूँढने का प्रयास कम ही किया गया। उस दिन के बाद उन्हें किसी ने नहीं देखा…। शायद सम्मान पाने के बाद वह ‘उनके’ पास चली गयी। उन्हें बताने… -(श्रीमती) रागिनी शुक्ला |
प्रस्तुति: रचना त्रिपाठी
क्या कहूँ ..कहानी पढ़ कर हतप्रभ हूँ..बहुत ही उम्दा..संग्रहनीय...
ReplyDeleteलगातार गिरते सामाजिक मूल्यों पर चोट करती अच्छी कहानी। रचना जी को धन्यवाद इस पोस्ट के लिए।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
निशब्द!!
ReplyDeleteबस, पढ़कर सन्न रह गया!!
ऐसे नराधम हैं - यह यकीन था। पर एकबारगी पढ़ कर मन स्तम्भित अवश्य हो गया।
ReplyDeleteऔर बढ़ती जिन्दगी की अवधि के चलते वृद्धों की दुर्दशा और होने वाली है। समाधान नजर नहीं आता। शायद वृद्धावस्था मैनेजमेण्ट पर पर्याप्त शिक्षण की जरूरत है। परिवार के खम्भे टूट रहे हैं। अपने बच्चों से पुराने मूल्यों का पालन की अपेक्षा चोट कर सकती है।
इस कहानी नें बहुत गहरे तक प्रभावित किया है ,श्रीमती शुक्ला जी को बधाई .
ReplyDeleteक्या कहा जाये!!
ReplyDeleteसमाज की मूल्य हीनता तथा बदलते दौर में उम्दाकहानी.
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ati uttam bahut hi sunder kruti ,
ReplyDeletejai jai
kya kahun? kahani nihshabd chhod gayi.atyant marmik aur marmasparsi kahani.padhane ke liye dhanyavaad.
ReplyDelete.बहुत ही उम्दा..
ReplyDeleteओह ! स्तब्ध हूँ ! लेखनी की प्रभावोत्पादकता पर भी !
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