Friday, November 28, 2014

ज्योतिष पर बहस के साइड-इफेक्ट्स

आजकल मैं बड़ी दुविधा में हूँ। जबसे स्मृति ईरानी ने एक ज्योतिषी से अपना हाथ दिखा लिया है, बल्कि जबसे उनके द्वारा ज्योतिषी से हाथ दिखाने का प्रचार इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया ने कर दिया है तबसे तमाम प्रगतिशील और वैज्ञानिक टाइप लोग इसपर तमाम लानत-मलानत करने पर उतर आये हैं। रोज-ब-रोज देश की छवि मटियामेट हो जाने से चिन्तित लोगों को देखकर मेरा मन भी धुकधुका रहा है। इस बहस में कहाँ रखूँ अपने आप को? हमने जन्तु विज्ञान में परास्नातक किया है। मतलब हाईस्कूल, इंटर, बी.एस-सी. और एम.एस.सी. सबकुछ `साइंस-साइड' से। लेकिन मेरी सभी परीक्षाओं का फार्म भरवाने से पहले अपने खानदानी पंडितजी जो ज्योतिष के प्रकांड विद्वान माने जाते हैं उनसे पापा ने शुभ-मुहूर्त जरूर दिखवाया है। यह बात भी सत्य है कि हम बिना फेल हुए हर साल अच्छे नंबर से पास भी होते रहे हैं। ऐसे में क्या आप एक विज्ञान के विद्यार्थी से यह उम्मीद करते हैं कि वह इतना अंधविश्वासी होगा…?

जन्म से लेकर आजतक हमारा कोई महत्वपूर्ण कार्य पंडितजी की राय या अनुपस्थिति में नहीं हुआ है। हम तो यही देखते आये हैं कि घर में कोई शुभ-कार्य करना है, यहाँ तक कि कहीं दूर की यात्रा पर भी जाना है तो बिना पंडितजी से शुभमुहूर्त दिखाये नहीं जाते है। शिक्षा- दीक्षा रही हो या विवाह का योग; दूल्हे की दिशा-दशा का अनुमान लगाना हो या शारीरिक सौष्ठव जानना हो; वह नौकरी-शुदाहोगा, बेरोजगार होगा या किसी व्यावसायिक या उद्योगपति घराने से संबन्धित होगा; यह सब ज्योतिषी जी से ही पूछा जाता था। मेरा दाम्पत्य-सुख निम्न, मध्यम या उत्तम कोटि का होगा; इन सब बातों की जानकारी के लिए हम ज्योतिष का ही सहारा लेते रहे।

विवाह हुआ नहीं कि घरवाले संतान-योग की जानकारी के लिए और होने वाली संतान सर्वगुण-संपन्न और योग्य ही हो इसके लिए ‘पंडीजी’ के बताये अनुसार अनुष्ठान, स्नान–दान, पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन आदि हम बिना विज्ञान-गणित लगाये निरंन्तर करते रहे हैं। सच पूछिये तो हमें अपना वर्तमान और भूत-भविष्य जानने की उत्कंठा आजतक रहती है। मैं यह सब करते-धरते बेटी से बहू भी बन गई लेकिन अपना भी कोई चान्स राजनिति में है कि नहीं यह जानने की ललक आज भी है। घर पर आने-जाने वाला कोई व्यक्ति जो यह बता दे कि उसे ज्योतिष की कुछ भी जानकारी है तो उसे पानी पिलाने से पहले अपनी हथेली दिखाने बैठ जाती हूँ। कई बार तो अपनी इस हरकत के लिए डाँट भी खा चुकी हूँ। मगर क्या करूँ मन के आगे मजबूर हूँ। यह मन बहुत महत्वाकांक्षी होता है जो उसे कभी- कभी अंधविश्वासी होने पर भी मजबूर कर देता है। इस अंधविश्वास में कालांतर सुख हो ना हो मगर तात्कालिक आनंद बहुत होता है। कभी मौका मिले तो आजमाकर देखिए।

हमारे ज्योतिषी के कहे अनुसार तो अबतक की प्रायः सभी भविष्यवाणी सही साबित हुई है। ज्योतिषशास्त्र द्वारा जो चाँद और सूरज की चाल की गणना करके ग्रहण आदि का समय बताया जाता है वह भी बिल्कुल सटीक बैठता है। जब हमने कंप्यूटर का नाम भी नहीं सुना था तब भी ग्रहण लगने पर कब नहाना है और कब दान-पुन्न करना है यह पंचांग देखकर पापा बता देते थे; और हम लोग मनाही के बावजूद छत पर जाकर राहु-केतु के मुंह में समाते और निकलते चाँद मामा और सूरज देवता को देख भी लेते थे। सदियों से चली आ रही हमारी परम्पराएं भी तो जन्म से लेकर शादी-ब्याह और मृत्युपर्यन्त कर्मकांड तक बिना पंचांग देखे पूरी नहीं होती है। इसके बिना मन को संतोष और हृदय को आश्वस्ति कहाँ मिलती है?

अब हम तो आजतक यही जानते है कि पंडितजी ने बताया है कि विवाह से पूर्व “हल्दी” का लेप लगाने की रस्म है, तो  है। हमें हर हाल में यह रस्म अदा करनी है। नहीं किया तो अशुभ हो जायेगा। इस प्रक्रिया में कितना विज्ञान है, कितना ज्योतिष है और कितनी चिकित्सा यह कभी नहीं सोचा। उस समय हम तो शुभ-अशुभ मानते हैं। विज्ञान तो यही कहता है कि किसी तरह की बीमारी या साइड इफेक्ट से बचने के लिए हल्दी का प्रयोग अनिवार्य है। क्योंकि हल्दी बेस्ट एन्टीसेप्टिक होता है। विज्ञान को समझने में हमें थोड़ी देर लगेगी लेकिन पंडितजी की बात हम तत्काल समझ जाते हैं। इसका कारण यह है कि  हमारे तो छठी के दूध में ही ज्योतिष शास्त्र मिला हुआ है।

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, November 19, 2014

लैंगिक समानता की कठिन राह

एक पुरुष किसी स्त्री के साथ जब  प्रेम में होता है तो वह उसके साथ “संभोग” करता है और जब नफरत करता है तो उसका “बलात्कार” करता है..ऐसा क्यों? नफरत की स्थिति में भी वह एक स्त्री को देह से इतर क्यों नहीं सोच पाता? अगर समाज का बदलता स्वरूप आज भी वही है जो सदियों पहले था तो यह स्पष्ट है कि पुरुष की सोच आज भी प्रधान है। अगर कुछ बदला है तो वो स्त्रियों का मुखर होना। आज के दौर में स्त्रियां अपने शोषण/ बलात्कार के बाद चुप बैठकर सुबकती नहीं, बल्कि चिल्लाती हैं।

इस बदलते परिवेश में अधिकांश पुरुष आज भी स्त्री को पितृसत्ता की जागीर ही समझते हैं। उसे अपनी इज्जत का डर ना हो तो मौका मिलने पर आज भी वह अपने इर्द-गिर्द एक नहीं हजार स्त्रियों को नंगा ही देखना पसंद करे। मगर जब एक स्त्री स्वेच्छा से अपनी पसंद के वस्त्र पहनती; अपने पसंद के लड़के/पुरुष के साथ घूमने जाती; एकांत में अपने प्रेमी के साथ समय बिताना चाहती है तो इसी समाज के पुरुष वर्ग को आपत्ति होने लगती है। इसमें उन्हें अपनी संस्कृति का ह्रास दिखाई देने लगता है। ऐसे लोग एक स्त्री को लांछित करते हुए यह भी कहने से नहीं चूकते कि “जब लड़की/स्त्री एकांत में एक (अपने किसी प्रेमी)  के साथ प्रेमालाप कर सकती या सो सकती है तो चार और के साथ उसे सोने में क्यों आपत्ति है? ऐसे में उसके साथ बलात्कार होना तो स्वभाविक है” क्योंकि ‘‘मर्द तो मर्द होता है।’’ इस समाज की यह सोच आज भी बताती है कि- पुरुष ही प्रधान है!

बहुत दिनों से ऐसे कईं सवाल मेरे जेहन में खटकते हैं जिसका जवाब ढूंढने की कोशिश करती हूँ तो यही मिलता है- पुरुष की अपनी ‘सोच’ और उसका अपना ‘सुख’ ही आज भी सर्वोपरी है। भले से इसके लिए उसे एक नहीं सैकड़ों स्त्रियों की देह से होकर गुजरना पड़े।

किसी के साथ आपसी रंजिश हो तो इस समाज का एक पुरुष वर्ग ‘माँ-बहन’ की गालियां देने से नहीं चूकता; और जब दोस्तों के साथ हंसी-ठिठोली भी करता है तब भी माँ-बहन ही करता फिरता है। पुरुषों को इसकी स्वतंत्रता किसने दी.. क्या हमारी संस्कृति में कहीं भी यह लिखा है.. किसी ने कहीं पढा़ है तो जरा बताए.. ?  या फिर कानून इन्हें गाली देने  के इजाजत देता है…?

ऐसा लोग कहते हैं कि- “शारीरिक सबंध बनाने के बाद एक स्त्री के लिए पुरुष का प्रेम और प्रगाढ़ हो जाता है।” तो किसी  स्त्री के साथ बलात्कार करने के बाद एक पुरुष के अंदर प्रेम क्यों नहीं उपजता..? बलात्कार के बाद वह एक स्त्री को मार-काट देने अथवा हत्या कर देने जैसा जघन्य अपराध क्यों कर बैठता है..? जानवर भी एक पल के लिए इस तरह का दुष्कृत्य करने से पहले ठिठक जाए।

घर से दफ्तर तक महिलाओं की स्थिति में पहले से सुधार आया है। लड़कियों की शिक्षा में बराबरी का अधिकार; नौकरी में भी लड़कियों को उतना ही अधिकार दिया गया है जितना कि लड़कों को दिया गया। इन दिशाओं में बदलाव निस्संदेह आया है। लेकिन इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण है - लगातार बढ़ते उपभोक्तावाद में घर-परिवार की आर्थिक जरूरतों का बढ़ता जाना । जबतक स्त्री/ पुरुष दोनों शिक्षित नहीं होंगे; रोजगारशुदा नहीं होगे तबतक एक परिवार के लिए सामान्य जीवन जीना भी मुश्किल होगा। इस बदलाव में हमें लैंगिक समानता की उत्कंठा कम और मजबूरी ज्यादा झलकती है। यदि ऐसा नहीं है तो उसे स्वेच्छा से कपड़े पहनने; प्रेम करने; अपनी मर्जी से शादी करने; अपने किसी पुरुष से मित्रवत बात करने के सवाल पर यह समाज क्यों बौखला उठता है; जो कथित रूप से बदल रहा है?

(रचना त्रिपाठी)

 

Saturday, November 1, 2014

मन स्वच्छ तो सब स्वच्छ

स्वच्छता अभियान तबतक नहीं सफल हो सकता जबतक कि इस देश का प्रत्येक नागरिक इस कहावत को सही नहीं साबित करता- “मन चंगा तो कठौती में गंगा”। हर प्राणी चाहता है कि वह अपना जन्मस्थल, कर्मस्थली और धर्मस्थल साफ-सुथरा रखे। अपने इस नेक इरादे को सफल बनाने के लिए हर संभव प्रयासरत भी है। पर वह एक स्थान भूल बैठा है- वह है ‘मनस्थल’। इस अभियान में इसका कहीं जिक्र ही नहीं है। इसकी सफाई की तरफ उसका ध्यान आकर्षित ही नहीं हो रहा। सर्वप्रथम  उसे मन के भीतर की गंदगी को साफ करना होगा जिसकी साफ-सफाई किसी उत्सर्जन क्रिया के जरिए नहीं होती।

इर्ष्या, द्वेष, कुंठा, क्रोध, भय, मोह, घमंड आदि  ऐसे रोग हैं जो मन की गंदगी से उपजते है और दीमक की भांति मनुष्य का पूरा व्यकित्व चट कर जाते है- बंजर खेत की तरह, जहाँ न तो कोई सकारात्मक विचार पनपता है और ना ही कोई अच्छी सोच विकसित होती है; क्योंकि व्यक्तित्व ही विचारों की उपजाऊ जमीन होता है।

मन की मैल कोई प्लास्टिक का कचरा नहीं है जो कभी समाप्त ही नहीं हो सकती। इसकी सफाई करना तो और भी आसान है। पर यहां हर आदमी का सिद्धान्त उलट जाता है। वह यही सोचता है कि- जग सुधरेगा, पर हम नहीं सुधरेंगे। जिससे वह अपनी जड़ स्वयं खोदता है। कभी-कभी तो इसका परिणाम बहुत भयावह हो जाता है।

जब तक व्यक्तित्व रूपी जमीन को रोग मुक्त नहीं बनाएंगे तब तक स्वस्थ, स्वच्छ और सुन्दर समाज की कल्पना करना भी बेमानी है, स्वच्छता अभियान की सफलता तो अभी दूर की बात है। लेकिन जाने क्यों मनुष्य इस मलिनता से निवृत्त होना नहीं चाहता। बल्कि एक हथियार के रूप में आपसी रंजिश में इसका इस्तेमाल भी करता है। जो इस समाज के लिए नुकसानदेह ही नहीं बहुत शर्मनाक भी है।

मनुष्य एक प्रगतिशील और विवेकशील प्राणी है। उसके पास तो इन सभी समस्याओं का समाधान करने का संसाधन भी है। बस कमी है तो एक मजबूत ‘इच्छाशक्ति’ की। इसे हासिल करना भी उसके लिए बहुत आसान है; क्योंकि वह एक वैज्ञानिक है, एक योगी है और एक चिकित्सक भी है।  उसे अपने इस हुनर का इस्तेमाल कर पहले मन को चंगा कर अपने व्यक्तित्व को चमका लेना चाहिए। फिर तो बाकी गंदगी अपने-आप साफ हो जाएगी।

(रचना त्रिपाठी)