Monday, October 28, 2013

नक्कारों की फौज भर्ती को तैयार…

प्रदेश सरकार की मेहरबानियों पर पलता-बढ़ता हमारा समाज और इस समाज के युवा वर्ग की हालत देखकर मन उद्विग्न है। यह प्रचार हो रहा है कि उनकी पढ़ाई के लिए कितने खर्चे अपने सिर पर ढो रही है उत्तर प्रदेश की सरकार। इन बच्चों में पढ़ाई के प्रति ललक बनी रहे इसके लिए इन्हें कितने तोहफे बांट चुकी है। लेकिन सच्चाई यह है कि नकल की खुली छूट देकर बोर्ड परीक्षाओं में सामान्यतः सत्तर प्रतिशत से ऊपर अंक देने के बाद एक-एक घर में चार-चार लैपटॉप और टैबलेट बाँटना कहीं से जायज नहीं कहा जा सकता। राजनीति के तोहफे इसी प्रकार लुटाये जाते है हमारे देश के बेरोजगार युवाओं पर। सरकार अब उन्हें आसान नौकरी का भी तोहफा देने की तैयारी कर चुकी है।

उत्तर-प्रदेश में ग्राम पंचायत अधिकारियों की भर्ती होने जा रही है। हाईस्कूल व इंटरमीडिएट बोर्ड परीक्षा के अंको के आधार पर मेरिट सूची तैयार की जायेगी और रिक्तियों के दस-बीस गुना अभ्यर्थियों को इंटरव्यू के लिए काल कर लिया जायेगा। जिले के सरकारी अधिकारी इनका इंटरव्यू लेंगे और उसमें प्राप्त अंकों के आधार पर नियुक्ति कर दी जाएगी। यानि कोई लिखित प्रतियोगी परीक्षा नहीं करायी जाएगी। एक अभ्यर्थी चाहे जितने जिलों से आवेदन कर सकेगा और अपना भाग्य आजमा सकेगा। इस भर्ती प्रक्रिया में बेरोजगार युवाओं से अधिक तैयारी और दौड़-धूप उनके अभिभावक कर रहे हैं। जिसकी जितनी ऊँची पहुँच और जितनी भारी जेब है वह उतना अधिक आश्वस्त है।

त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था के सबसे निचले स्तर की इकाई ग्राम पंचायत के सचिव की कुर्सी की शोभा बढ़ाने वाले इन ग्राम पंचायत अधिकारियों की सरकारी योजनाओं को ग्राम स्तर पर लागू करने में बहुत अहम भूमिका होती है। इसलिए इस पद के लिए एक से बढ़कर एक बोली लगायी जा रही है। सुना है एक कैन्डीडेट पर करीब बारह लाख रूपए तक की बोली लग चुकी है। देखना रोचक होगा कि तृतीय श्रेणी के इस पद के लिए बारह लाख देने वाले ‘बेरोजगार’ की हैसियत क्या होगी? जो बेरोजगार बारह लाख नहीं दे पायेगा वह अपने आप को जीवन भर कोसता रहेगा। अब इस बारह लाख के लिए उन्हें या उनके घर वालों को जाने कौन-कौन से कार्य करने पड़ेंगे- चोरी, डकैती लूट, हत्या और आत्महत्या जैसे अनेक प्रयासों के वे भागीदारी बनेंगे।

ऐसे युवाओं को शुरू से ही भ्रष्टाचार और निकम्मेपन की राह पर भटकाने के अलावा हमें उनके हित की कोई बात नही दिख रही। इन शर्तों पर भी यदि भर्ती प्रक्रिया सम्पन्न हो जाती है तो इन ग्राम पंचायत अधिकारियों के हाथों हमारा गांव और समाज किस तरह का विकास कार्य कर पाएगा?

प्रदेश सरकार ऐसे में बेरोजगारों को रोजगार देने जा रही है, या गोंवों के विकास के लिए एक प्रतिबद्ध कर्मचारी? बारह लाख देने के बाद वह बेरोजगार कैसे विकास का कार्य करेगा? इस पर जरा एक बार हम सबको विचार करना चाहिए और इस भर्ती प्रक्रिया की जड़ों को तलाशना चाहिए। जो सरकार अपने प्रशासनिक तंत्र में योग्य और प्रतिभाशाली अभ्यर्थियों के निष्पक्ष चयन को प्राथमिकता देने के बजाय नकलची और जुगाड़ू लड़कों की नकारा फौज भर्ती करने पर उतारू हो उससे और क्या उम्मीद की जा सकती है?

ऐसा कहा गया है कि मेहनत के फल मीठे होते हैं। लेकिन यह कैसा फल है? जिसमें हमें न तो मेहनत नजर आ रही है और ना ही ईमानदारी नाम की कोई चीज। यह सरकार तो बेरोजगार युवाओं के साथ खिलवाड़ करती नजर आ रही है। एक उच्च शिक्षा प्राप्त युवा मुख्यमंत्री के हाथों में चलती सरकार से क्या यही उम्मीद थी? उन्हें अपने प्रदेश के युवाओं के साथ इस तरह का भद्दा मजाक नहीं करना चाहिए। यह सस्ती लोकप्रियता का हथकंडा प्रदेश और इसके युवाओं को ले डूबेगा। तो क्या वह गद्दी बची रहेगी जिसे बनाये रखने के लिए यह आत्मघाती राह चुनी जा रही है।

क्या किसी न्यायालय की दृष्टि इस बड़ी धांधली की साजिश पर पड़ने का समय नहीं आ गया जो समय रहते इसको रोकने के लिए प्रभावी कदम उठा सके? नौकरशाही क्या इतनी कमजोर और डरपोक हो गयी है जो साफ-साफ दिख रही अंधेरगर्दी को आगे बढ़ाने में बिल्कुल संकोच नहीं कर रही है? एक एक साफ-सुथरी प्रतियोगी परीक्षा कराकर योग्य और मेहनती अभ्यर्थियों का चयन करने में हमारा तंत्र क्या बिल्कुल अक्षम हो चुका है? पिछले चार-पाँच सालों में टी.ई.टी., बी.टी.सी., टी.जी.टी., और शिक्षकों की नियुक्ति सम्बंधी तमाम प्रकरणों को देखने से तो यही महसूस हो रहा है।

(रचना)

Wednesday, October 16, 2013

गरीबों के अनाज पर डाका..

खाद्य सुरक्षा कानून पर महामहिम के दस्तखत की स्याही अभी सूखी भी नहीं होगी कि इसके माध्यम से मिलने वाले सस्ते अनाज की कालाबाजारी की खबरें न्यूज चैनेलों में सुर्खियाँ बटोरने लगीं हैं। आजतक न्यूज चैनल ने सरकार की सवा लाख करोड़ की सबसे बड़ी योजना के काले सच का खुलासा किया है। देश की राजधानी से ही शुरू हो गया खाद्य सुरक्षा के अनाज की कालाबाजारी का गोरखधंधा। गरीबों का पेट भरने की दलील देने वाली सरकार इस कालेधंधे की सच्चाई से अछूती तो नहीं होगी। इस घोटाले में नौकरशाह और राजनेता दोनों ही संलिप्त नजर आ रहे हैं।

लगता है कि सरकार को गरीबों की भूख की फिक्र कम, अपने चुनाव में होने वाले खर्चे की चिंता ज्यादा सता रही है। शायद इस योजना के तहत सरकार की एक अलग योजना पूरी करने की साजिश रही है, तभी तो सरकार ने चुनाव होने के शीघ्र पहले ही इस योजना को लागू किया ताकि इनके खजाने में कहीं कोई कमी आए बगैर चुनाव लड़ा जा सके। नहीं तो इतने सालों तक गरीबों के भूखे पेट की ओर से यह सरकार क्या आँख पर पट्टी बांधे बैठी रहती? सरकार के मंत्री से लेकर अधिकारी तक सभी इस योजना में हो रही कालाबाजारी में संलिप्त लगते हैं। गरीबों को दो रुपये में मिलने वाला गेहूं निजी आटा चक्कियों पर बारह रूपये मे बेचा जा रहा है। थाने से लेकर फूड इंस्पेक्टर का बंधा हुआ है कमीशन।

खाद्यसुरक्षा योजनाओं से लाभ लेने वाले पात्र लोगों के पास तो राशन कार्ड भी नहीं है; और ना ही इसके लिए जिम्मेदार अधिकारी किसी पात्र गरीब का राशन कार्ड समय से बना पा रहे हैं। मेरे घर में बर्तन माँजने वाली जो अपना और अपने बच्चों का पेट पालने के लिए प्रतिदिन लगभग दस घरों में काम करती है, बताती है- “मै सालों से दौड़ रही हूँ, मेरा न तो कोई कार्ड बना और ना ही कभी कम दाम में मुझे अनाज ही मिला।” इस योजना की सच्चाई यह भी है कि गरीबों के अनाज पर डाका डालने के लिए फर्जी राशन कार्ड भी बनाए जा रहे हैं। लगता है कि यह मूक-बधिर सरकार अपने स्वार्थ के आगे अब अंधी भी हो गयी है। लोक-लुभावन योजनाओं की आड़ में गरीबों के पेट पर लात मारती सरकार संवेदना विहीन एक काठ का पुतला नज़र आती है।

(रचना)

Thursday, October 10, 2013

राजनीति अब शरीफों के लिए नहीं रही...

 

राजनीति का मंच सार्वजनिक होता है... आखिर यह लोकतंत्र जो है. देश के हर नागरिक को राजनीति के क्षेत्र में भाग्य आजमाने का अधिकार है। सत्ता की सर्वोच्च कुर्सी पर काबिल लोग आ सकें इसके लिए यह व्यवस्था की गयी होगी; लेकिन इस मंच पर जो आते हैं उनका बायोडेटा देखने पर हाल कुछ और नजर आता है। यहाँ आने के लिए जो काबिलियत चाहिए वह कुछ दूसरी तरह की है। पढ़ा-लिखा हो या नहीं इससे क्या मतलब है देश को..? चोर, लुटेरे, व्यभिचारी, सूदखोर, ब्लैकमेलर, हत्यारोपी, रंगदार, भांड़, नचनिया, गवनियां सब राजनीति के मजे चखना चाहते है... आखिर मालामाल जो है। इन्होंने तमाम गलत रास्तों से पहले पूँजी इकठ्ठा कर ली और फिर कूद पड़े।

पूछिए इनसे - राजनीति में आने के लिए कालाधन क्यों उगाते हो भाई? बोलेंगे- खाएंगे तभी तो खिलाएंगे.. इतनी सहूलियत और कहाँ मिलेगी इन्हें..? एक बार बस गद्दी हाथ लग जाय तो देखो कमाल इनका.. न तो कमर मटकाने की जरूरत पड़ेगी और न ही अपने फिटनेस के लिए किसी जिम में जाकर जी तोड़ मेहनत कर पसीने बहाने की.. इस देश की राजनीति में क्या जरूरत है किसी सोसल वर्कर की..? कहीं समाज जागरुक हो गया तो इनकी माला कौन जपेगा..?

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ऐसी स्थिति में पेशेवर सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए कोई गुंजाइश बचती है क्या? समाज के लिए कार्य करना अपना समय बर्बाद करने के बराबर है.. यूँ कहे तो राख में घी डालने के बराबर..। समाज इन्हें देता ही क्या है..? अमुक जी नाच-गाना कर के या दूसरे तरीकों से करोड़ों कमाकर रखे है- इसी दिन रात के लिए कि बैठाकर मुफ्त की रोटियाँ खिलाएंगे.. गाँव में वीडियो चलाकर तिवारी जी का नाच-गाना दिखाएंगे और उसके बाद कुछ खिला-पिलाकर सुबह वोट बटोर के ले जायेंगे.. फिर क्या! मंच पर कोई दूसरे बाबा का अवतार होगा..और फिर शुरू होगा ‘‘ओठवा में लगवले बाड़ी, कनवा में पहिने बाली चाल चलेली मतवाली, बगल वाली जान मारेली”। कितने रोजगार जैसे शिक्षक की भर्तियाँ इत्यादि सफेद पोशाक वाले सालों से सिकहर पर टांगे बैठे हैं कि कही कोई और बिल्ली झपट्टा न मार ले इनके वोट के खजाने को..।

..फिर क्या बगल वाली हो या अपना पड़ोसी, जान मारे या मरवाये.. हम तो भई! जैसे हैं वैसे रहेंगे.. देश मुंआ मुह पिटाये, आखिर यही तो होता रहा है आज तक यहाँ की राजनीति में.. ये कौन सी इस परम्परा से अलग हट कर कुछ नया करने को सोचने वाले हैं.. बड़का-बड़का राजनितिज्ञ तो जेल की हवा खा रहे हैं.. करमजला कानून ने भी एक लफड़ा लगा दिया है.. इनको आराम फरमाने का.. दूसरा कोई करे भी तो क्या..? ऐसा कोई माई का लाल पैसे वाला जन्मा ही नही कि चुनाव में अपना लगाकर जीत जाये.. क्योंकि यह भी जानते है आम जनता की हालत इतनी खस्ती है कि दो दिन भी भरपेट भोजन, दारू नाच-गाना में इनको मस्त कर दिए तो ३६३ दिन की चिंता तो इन्हें भूल जायेगी.. आखिर भूखमरी की शिकार जनता को दो-चार दिन खिला-खिला कर अघवाएंगे नही तो अपने फिर पाँच साल कैसे अघाएंगे..?

(रचना)

Tuesday, October 1, 2013

बंदर के हाथ में बंदूक..

 

पश्चिमी उत्तर प्रदेश की हालत दिनों-दिन बिगड़ती नजर आ रही है। इसके लिए जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ प्रदेश सरकार की बचकानी और संकुचित सोच है। ऐसा भी नहीं है की अखिलेश सरकार को राजनीति का क ख ग नहीं पता है। इनकी तो पैदाइश ही राजनीति कोंख की है। मेरठ के खेड़ा गांव में जो भी बखेड़ा हो रहा है उससे आज की तारीख में सबकी जुबान पर सिर्फ अखिलेश की बेवकूफी से एक के बाद एक लिए हुए निर्णय है जो जनता को बिल्कुल रास नही आ रहे हैं। विश्व हिन्दू परिषद द्वारा चौरासी कोसी परिक्रमा में शासन और प्रशासन ने सांप्रदायिक सौहार्द बनाये रखने के लिए जितनी तेजी दिखायी, उतनी ही तत्परता से मुज्जफरनगर दंगे को नियंत्रित क्यों न कर सकी? जनता से वोटों की भीख माँगने वाली सरकार को क्या दंगे कराने और मुआवजे बांटने के लिए चुना जाता है?

राहत शिविर में रहने वाली महिलाओं और लड़कियों के साथ छेड़खानी और दुष्कर्म के मामले में सरकार का 1090 नम्बर अब क्या काम करना बंद कर चुका है? मुज्जफरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों में पहले से ही अपने प्रियजनों को खो बैठने वाली महिलाओं के दु:ख क्या कम थे, जो उनके ऊपर लाठियां बरसाकर सरकार अपनी अराजक सोच का खुलेआम प्रदर्शन कर रही है? पुलिस भी सरकार के हरम में बैठी उसका नमक खाने की दुहाई देती नजर आ रही है। क्या इसी दिन के लिए जनता ने अपने राज्य की कमान एक युवा के हाथों सौपी थी? पुलिस का कहर जिस तरह खेड़ा गांव के महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों पर बरपा हो रहा है उससे यह स्पष्ट है कि नौकरशाह से लेकर लोकशाही तक सब अपने साज-श्रृगांर में लगी हुई है। लाशों की ढेर पर वोटों की राजनीति करती सरकार जनता की नहीं रह गयी है, बल्कि अपने बाप, दादा, चच्चा, ताऊ की हो कर रह गयी है।

खेड़ा की महिलाओं में जो आक्रोश दिख रहा है उससे यही पता चलता है कि पानी सिर से उपर उठ चुका है। यू.पी. की बागडोर अब महिलाओं के हाथ में ही होगी तभी वहाँ की परिस्थितियाँ अनुकूल होंगी। वहाँ की महिलाओं का भरोसा इन राजनेताओं और लोकसेवकों पर से उठ गया है। जनता भी अपनी बेवकूफी पर पछताने के अलावा और कर भी क्या सकती है? बंदर के हाथ में बंदूक जो पकड़ा दिया है। भुगतना तो पड़ेगा ही। केन्द्र सरकार की बैसाखी इनके हाथ में है; नहीं तो इतनी बुरी स्थिति में यू पी में राष्ट्रपति शासन लागू हो जाना चाहिए था।

(रचना)