Thursday, September 26, 2013

वर्धा में जो हमने देखा…

विगत 20-21 सितम्बर को हिन्दी ब्लॉगिंग व सोशल मीडिया पर एक राष्ट्रीय सेमीनार महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा में आयोजित हुआ। इस विचार गोष्ठी में एक से बढ़कर एक दिग्गज ब्लॉगर मौजूद थे। मुझे भी इनके साथ इस ब्लॉगरी पर चर्चा करने के लिए आमंत्रित किया गया था। उद्‍घाटन सत्र में सोशल मीडिया के महत्व और उसकी विशेषताओं पर हुई चर्चा से काफी गहमा-गहमी बनी रही। इसी दौरान इस विश्वविद्यालय के कुलपति जी श्री विभूति नारायण राय ने हिंदी ब्लॉग जगत को एक शानदार सौगात देने की घोषणा की- विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर शुरू होगा  “चिट्ठा समय” ब्लॉग संकलक जो हिंन्दी ब्लॉगों को जोड़ने के लिए एग्रीगेटर का कार्य करेगा।

उद्‍घाटन सत्र से लेकर समापन समारोह तक चर्चा के लिए जितने भी विषय दिए गये थे उन सभी विषयों पर चर्चा हो चुकी थी; बस एक विषय छूटा जा रहा था जो मनीषा पान्डेय जी के द्वारा विशेष उल्लेख के अनुरोध से पूरा किया गया- ‘स्त्री और उनके अधिकार’। मनीषा जी ने बहुत सी आँखे खोलने वाली बातें कीं। लड़कों की ही तरह लड़कियों को मिलनी चाहिए घूमने की आजादी और पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी आदि।

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लेकिन हमें लगता है नारीवाद अपने आप में एक विवाद का विषय हो गया है। स्त्रियों के अधिकारों की बात सुनकर बहुत अच्छा लगता है। मिल जाए तो उससे भी कहीं ज्यादा अच्छा लगेगा। लेकिन नारीवादियों का भी एक आदर्श होना चाहिए जिससे इसके उद्देश्यों की प्राप्ति में तेजी आ सके। स्वतंत्रता और खुलेपन की अंधी दौड़ में शामिल होने की आतुरता हमें ऐसी दिशा में तो नहीं ले जा रही जहाँ जाकर हमें खुद ही लज्जित होना पड़े। अपनी मूल संस्कृति और संस्कारों को केवल प्रगतिशीलता के नाम पर तिलांजलि दे देने से हमें क्या कुछ बड़ा और महत्वपूर्ण हासिल होगा? इसका ठीक-ठीक  उत्तर मिलना अभी शेष है। एक नया मूल्य स्थापित करने की ललक में हमें अनेक पारंपरिक मूल्यों को नष्ट करने से पहले ठहरकर शांतचित्त हो कुछ सोच लेना चाहिए।

यदि हम सजग नहीं रहे तो इस देश की देवीस्वरूपा नारी और राष्ट्रभाषा हिन्दी की शायद एक ही प्रकार से दुर्गति होने वाली है। सेमिनार में एक छात्र तो हिंदी को बदलकर पूरी तरह हिंगलिश बनाने के लिए व्याकुल दिख रहा था। भला हो कि हमारे बीच से ही कुछ लोगों ने उसकी व्यग्रता कम करने की कोशिश की। देखते हैं कब गाड़ी पटरी पर आती है?

इन बड़े-बड़े ब्लॉगरों के बीच हम तो भिला (खो) से गये थे। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा जहाँ पर मैं अपने परिवार के साथ जून-2010  में गयी थी, पूरे नौ महीने रहने के बाद उस जगह का रूखा वातावरण देखकर मेरा धैर्य जवाब दे गया था और हम पुन: यू.पी. वापस चले आये थे। लेकिन अब वहाँ जाकर इस ढाई साल में हुए अद्भुत परिवर्तन को देखकर हम दंग रह गये। बड़ा ही जीवंत माहौल था वहाँ का। चारों तरफ हरियाली और फूलों से सुसज्जित ‘नागार्जुन सराय’ नामक गेस्ट हाउस जिसका दो साल पहले लगभग कोई अस्तित्व नहीं था, हमारे लिए बिल्कुल नया था। इस विश्वविद्यालय की खुशनुमा शाम पूरे सुर-लय-ताल में बँधी वीणा की तरह बज रही थी। इसका सारा श्रेय कुलपति महोदय को जाता है। यह श्री विभूति नारायण राय की वीणा है। जब तक यह वीणा इस विश्वविद्यालय में रहेगी इसका स्वरूप और अनोखा होता जायेगा, यह मेरा मानना है।

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इन दो दिनों में सभी ब्लॉगर मित्रों से मिलकर बहुत अच्छा लगा। हिंदी ब्लॉग के प्रथम हस्ताक्षर/ निर्माणकर्ता आलोक कुमारजी से मिलना भी मेरे लिए इस सम्मेलन की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। कुलपति जी द्वारा दिये गये रात्रिकालीन प्रीतिभोज के पहले अरविन्द मिश्र जी की सुरीली आवाज में गाये गीत ने इस आकर्षक माहौल में चार चाँद लगा दिये।

(रचना)

Friday, September 13, 2013

तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें रोटी दूंगा..|

 

यह है भारतवर्ष के युवराज का नारा और हमारे देश की हकीकत। पूरे नौ साल तक राज करने के बाद यह सरकार आखिरकार आ ही गयी अपनी असलियत पर। पूरी बेशर्मी से यह बताती हुई कि देश की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा आज भी रोटी का ही मोहताज है। वोट की राजनीति देखिये अभी क्या-क्या गुल खिलाती है। सत्ता में आने से पहले इस पार्टी ने कितने लम्बे चौड़े वादे अपने देश के युवा वर्ग से किये थे। देश का कोई युवा बेरोजगार नहीं रहेगा। हर गाँव में बिजली और पानी की व्यवस्था की जायेगी। सभी वर्ग के लिए उचित शिक्षा का प्राविधान होगा। गाँव-गाँव, नगर-नगर में खुशहाली ही खुशहाली होगी और होगा - एक नये भारत का निर्माण..। लेकिन फिर से बात रोटी पर ही आकर अटक गयी।

राहुल गाँधी की इस नारेबाजी (हम आधी रोटी नहीं पूरे तीन-चार रोटी खायेंगे और काँग्रेस को ही लायेंगे) पर मेरा मन अत्यंत दुखी है। क्या ऐसा नहीं लगता कि आज भी हम उसी ब्रिटिश शासन की मानसिकता के तले दबे हुए है? यह सरकार पूरे नौ साल तक किन विकास के कार्यों में लगी रही कि आज भी हमारे देश की जनता एक रोटी के लिए मोहताज हो गयी है? ऐसा तो नहीं कि इस जनता को जानबूझकर एक रोटी के लिए मोहताज बना दिया गया? ताकि फिर सत्ता में बने रहने के लिए गरीब वर्ग को रोटी देने का हवाला देकर वोट बटोरा जा सके। शर्म आनी चाहिए इस नारेबाजी पर। अब हम गुलाम नहीं है, आजाद देश के नागरिक हैं लेकिन अफसोस, अभी भूख से ही आजादी नहीं मिल पायी है। उसपर ऐंठन यह कि सरकार चलाना तो बस हम ही जानते हैं...!

“उठो, जागो और लक्ष्य मिलने से पहले मत रुको”- यह आह्वान स्वामी विवेकानंद ने भारतवर्ष में युवाशक्ति की आध्यात्मिक और सृजनात्मक शक्ति को जाग्रत करने किए दिया था। अब समय आ गया है कि इसे नये परिदृश्य में साकार किया जाय। आज के युवा को दिग्भ्रमित नहीं होना चाहिए, उसके पास असीम शक्ति है। हमारा नेता ऐसा होना चाहिए जिसके लिए राष्ट्रसेवा ही सर्वोपरि धर्म हो.. उनमें समर्पण, त्याग और बलिदान की भावना हो.. जो अपने लिए नहीं इस देश की जनता के लिए सपने देखता हो..जो धार्मिक और जातिगत संकीर्णाताओं से ऊपर उठकर राष्ट्र के नवनिर्माण की परिकल्पना की बात करता हो।

आज हमें एक राष्ट्रनायक (स्टेट्समैन) की तलाश करनी है न कि राजनेता (पॉलिटीशियन) की। आप पूछेंगे – इनमें अन्तर क्या है? मैं बोलूंगी- स्टेट्समैन वह है जो अपनी नीतियाँ देश की अगली पीढ़ी को ध्यान में रखकर बनाता है और राजनेता वह है जो अपनी नीतियाँ देश के अगले चुनाव को ध्यान में रखकर बनाता है।

क्या हमें कोई राष्ट्रनायक मिलेगा? ढूँढते रह जाओगे।

(रचना)

Thursday, September 5, 2013

हिन्दी पर शरमाते भारतवासी

सुमबुल एक छोटे से कस्बे से आयी थी। वह शहरी तौर-तरीकों से परिचित नही थी। उन शहरी बच्चों की अपेक्षा उसे अंग्रेजी कम आती थी। जब वह क्लास में कोई प्रश्न पूछती थी तो उसे डाँट कर बैठा दिया जाता था। उसकी शिक्षिका उसे कहती थी कि तुम इस कॉलेज में पढ़ने लायक नहीं हो। डॉ. एमसी सक्सेना कॉलेज ऑफ फार्मेंसी, लखनऊ में 03 सितंबर दिन मंगलवार को बी. फार्मा प्रथम वर्ष की बीस साल की छात्रा सुमबुल ने  तीसरी मंजिल से कूद कर आत्महत्या करने का प्रयास किया। आत्महत्या की कोशिश किसी भी प्रकार से उचित नही ठहरायी जा सकती लेकिन ऐसी परिस्थितियां ही क्यों उत्पन्न होती हैं इस पर विचार किया जाना चाहिए।

रैगिंग जैसी प्रथा अभी जाने कितने मासूमों की जान के साथ खिलवाड़ करती रहेगी। यह प्रथा कानूनन अपराध की श्रेणी में है फिर भी रुकने का नाम नहीं ले रही है। आखिर रैगिंग लेने वाले सीनियर छात्र ही तो हैं जो अपने जूनियर्स के साथ इस तरह का कुकृत्य कर जाते हैं। उन्हें आत्महत्या तक करने के लिए मजबूर कर देते हैं। शिक्षण संस्थाओं में एक पीरियड रैगिंग जैसी कु-प्रथा पर क्यों नहीं चलाया जाता..? लेकिन इस कुप्रथा में शिक्षक भी लिप्त हो जायें तो शिक्षण के वातावरण को कैसे मजबूत बनाएंगे? अगर शिक्षक ही इन कुरीतियों को बढावा देंगे तो छात्रों का क्या होगा?

अब तो शहरी तौर-तरीकों का सिंबल ही अंग्रेजी जुबान हो गयी है। अंग्रेजों की दी हुई विरासत कितना संभाल कर रखा गया है हमारे हिन्दुस्तान में। अंग्रेज तो चले गये पर अंग्रेजियत को हमारे गले मढ़ गये। हर गली-कूँचे में इंग्लिश मीडियम स्कूल खुल गये हैं। जहां शिक्षक की पहली योग्यता यह होती है कि उसकी इंग्लिश-टंग है कि नही। अभिभावक भी तथा-कथित इंगलिश मीडियम स्कूल में पढ़ाकर बहुत खुश रहते है, भले ही बच्चे को विषय की समुचित जानकारी हो या न हो, गणित, विज्ञान या मानविकी के विषयों में सतही योग्यता रखते हों लेकिन यदि अंग्रेजी में गिट-पिट करना सीख गये तो अभिभावक खुशफहमी के शिकार हो जाते हैं। भारतीय सभ्यता व संस्कृति के मूल्यों का जैसा क्षरण इन स्तरहीन इंगलिश मीडियम स्कूलों के जरिये हुआ है वह चिंताजनक है।

(रचना)