Sunday, May 24, 2009

मेरा नाम अन्हरी नही, रीता है...!

 

उस दिन मेरे गाँव में बड़ा अजीब वाकया हो गया था। एक गरीब के घर बारात आयी थी। अपनी क्षमता के अनुसार स्वागत सत्कार किया था उसने। दूल्हे को विवाह मण्डप में ले जाकर बिटिया का पाणिग्रहण करा दिया। दोनो कोहबर में गये। फिर एक विशेष रस्म करने के लिए दूल्हे को आंगन के मणवा में दुबारा बैठाया गया। दूल्हन घूँघट डालकर दुबारा आँगन में आयी, दुबारा सिन्दूरदान कराया गया। कम उम्र का दूल्हा सबकुछ करता गया। काम से निवृत्त होकर ‘जनवासे’ में गया। अपने अभिभावकों से दुबारा सिन्दूरदान का किस्सा बताया तो शक के बादल घिरने लगे। पूछताछ शुरू हुई।

मामला तूल पकड़ता देखकर गरीब पिता को रहस्य पर से पर्दा हटाना पड़ा। दरअसल रामवृक्ष की तीन बेटियाँ थीं। गीता, रीता और राधिका। उनमें सबसे बड़ी गीता का विवाह तय हुआ था। उसके पाणिग्रहण के बाद जब वह कोहबर में चली गयी तो परिवार वालों ने पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार दूसरी बेटी रीता जो बचपन में चेचक के प्रकोप से अन्धी हो गयी थी, उसे विवाह मण्डप में बैठाकर उसकी मांग में भी सिन्दूर डलवा दिया। यह सोचकर कि इस अन्धी से तो कोई शादी करने से रहा। बड़े दामाद के हाथों सिन्दूर का सौभाग्य पाकर शायद आजीवन अनब्याही कहलाने का कलंक मिट जाय।

गरीबी के भी खेल निराले हैं। लड़के वालों ने इस योजना को मानने से इन्कार कर दिया और गीता को विदा करा ले गये। रीता अपनी मांग के सिन्दूर के साथ मायके में ही रह गयी। तब उसकी उम्र कोई ग्यारह-बारह साल की ही रही होगी। बीड़ी बनाकर गुजारा करने वाले परिवार की रीता को सारा गाँव ‘अन्हरी’ (अन्धी) ही पुकारता था। उसे भी अपना यही नाम पता था।

मेरी और रीता की उम्र लगभग एक ही थी। मै जब भी गाँव में घूमने निकलती तो देखती कि वह अपने घर के चबूतरे पर बैठे या तो कुछ खाती रहती या आते-जाते लोगों की आहट सुनती रहती। उसके शरीर पर हजारों मक्खियाँ भिनभिनाती रहतीं मानो जैसे उसके आस-पास मिठाई का शीरा गिरा हो। मै घंटो उसके क्रिया-कलाप देखती रहती।

रीता धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। उसके घर वाले दिन-प्रतिदिन उसकी चिन्ता में दुबले होते जा रहे थे। आये दिन उसकी माँ मेरे पापा के सामने आकर अपनी समस्या का समाधान पूछ्ती और घंटों रोती रहती। पापा उसको रोज एक ही बात समझाते कि उसे अंधों वाले स्कूल में डाल दो, पर उसकी माँ बार-बार पैसों का रोना रोती कि किसी तरह दो वक्त की रोटी मिल जाती है, यही बहुत है। …कहाँ से इतना पैसा लाउंगी।

पापा ने उसे समझाया कि उस स्कूल में सभी बच्चों के पढ़ाने का खर्च सरकार देती है। तुम्हें उसकी चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं है। बस तुम किराया जुटा लो। यह बात उसके भेजे में नही घुसती। इस सलाह पर उसके आँसू सूख जाते और वहाँ से बुदबुदाते हुए चली जाती……

“आन्हर बेटी कईसे पढ़ी?”।

उसकी माँ की रूढ़िवादी सोच उसके दिमाग पर ऐसी हावी हो गयी थी कि बड़ी बेटी के साथ ही इस अन्धी बेटी का हाथ पीला कर उससे निजात पाने की साजिश रचने में भी उसे संकोच नहीं हुआ। लेकिन होनी तो कुछ और लिखी थी।

बर्षों बीत गये,…ससुराल वालों ने रीता की कोई खबर नही ली। इधर रीता के घर वाले जब काम पर बाहर चले जाते तब गाँव के कुछ शरारती लड़के रीता के साथ छेड़खानी करते रहते। …कभी उसके सिर में ठोंकते तो कभी उसका दुपट्टा खींचते। …रीता एक साथ माँ बहन की सौ-सौ गालियाँ देती। ऐसी गालियाँ कि सुनने वालों के दाँत रंग जाते। रोज-रोज एक ही पंचायत “आज अन्हरी फिर गरियवलस…” (आज अन्धी ने फिर गाली दी)

अन्ततः रीता की माँ के पास मेरे पापा की सलाह मानने के अलावाँ कोई चारा नही बचा। एक दिन उसकी माँ रोती-बिलखती पापा के पास आयी और कहने लगी-

“बाबू! कुछ पैसों का प्रबन्ध करके अन्हरी को गाँव से हटा ही दीजिए तो अच्छा है, नहीं तो गाँव के लड़के उसको जीने नही देंगे।”

पापा को तो मानो उसकी माँ की इज़ाजत का बर्षों से इंतजार था। उन्हें देहरादून के एक ‘ब्लाइंड स्कूल’ के बारे में जानकारी थी। उन्होने थोड़ा प्रयास किया और वहाँ उसका दाखिला हो गया। तेरह-चौदह साल की उम्र में कक्षा-एक की छात्रा बनी।

दाखिले के छ: महीने बाद रीता जाड़े की छुट्टियाँ मनाने गाँव आयी। पूरे गाँव में शोर मचा…

“अन्हरी आ गइल…!”

यह आवाज रीता के कानों तक भी पहुँची। लेकिन इस बार कोई गाली नहीं दिया उसने। बड़ी ही सज्जनता से जबाब दिया-

“मेरा नाम अन्हरी नही, रीता है।”

गाँव वाले रीता के इस बदलाव को देखकर अचम्भित रह गये। पर कुत्ते की दुम कब सीधी होनी थी? ...दो-चार दिन बाद गाँव के वो शरारती बच्चे फिर रीता को रोज चिढ़ाने लगे। लेकिन रीता बदल चुकी थी। अब उसको गाँव के इस माहौल से ऊबन होने लगी थी। वह रोज सुबह उठती, अपना नित्यकर्म करने के बाद, अपनी माँ की उँगली पकड़े मेरे घर आ जाती। उसके पहनावे और रहन-सहन को देखकर, सबको हैरानी होती।

…क्या यह वही अन्हरी है…?

पापा को उसके बात करने का ढंग इतना अच्छा लगता कि वह मुझे बुलाते और कहते कि इसके पास बैठो और इससे बातें करो। रीता मेरे घर सुबह करीब आठ बजे आती और शाम को जब उसकी माँ अपने सारे काम निबटा लेती तब उसे ले जाती।

यह सिलसिला हर साल जाड़े की छुट्टियों में चलता रहा। बातों के सिलसिले में मैने पहली बार रीता के मुँह से ‘जीसस’ का नाम सुना।

मैने पूछा, “जीसस? …यह किस चिड़िया का नाम है?”

रीता ने बड़े प्यार से जबाब दिया, “मेरे भगवान। …वही तो हम सबके रखवाले हैं।”

वह मुझे घंटों प्रवचन सुनाती रहती। उसकी बातें खत्म होने का नाम नहीं लेती। मैं भी पापा के हटने का इंतजार करती। उनके हटते ही मै भी वहां से उड़न छू हो जाती।

रीता किसी के आने की आहट सुनती तो तुरंत पूछती ‘कौन’?...खाली समय में वह प्रायः स्वेटर बुनती रहती। कुछ भी खाने को दिया जाता तो पहले अपने हाथ अवश्य धोती।

रीता हर साल अपनी कक्षा में प्रथम आती थी। उसकी लगन और प्रतिभा को देखकर उसकी उम्र के लिहाज से स्कूल में उसे एक साल में दो-दो कक्षाएं पास करायी गयीं। इस तरह उसने जल्द ही ग्रेजुएशन पूरा कर लिया।

उसके व्यक्तित्व के इस आकर्षण को देखकर, वह लड़का जो अनजाने ही ‘अन्हरी’ का दुल्हा बना दिया गया था, उसने रीता का पति होने का अधिकार जताते हुए उसे विदा कराने का दावा कर दिया। लेकिन गुणवन्ती रीता उस अन्हरी की तरह मजबूर और दया की पात्र नही रह गयी थी। उसने मना कर दिया। उसे तो अपनी नयी दुनिया में ही उसके मन का मीत मिलना था। संस्था ने उसके लिए नौकरी ढूँढ दी और नौकरी ने उसी के मेल का एक जीवनसाथी दिला दिया।image

दो साल पहले रीता ने अपने मिस्टर राइट के साथ घर बसा लिया। दोनों साथ ही नौकरी करते हैं। इधर गाँव में अन्हरी को छेड़ने वाले छिछोरे बेरोजगारी और लाचारी का अभिशप्त जीवन जी रहे हैं और अपनी दोनों आखों से रीता की ऋद्धि-सिद्धि देख रहे हैं।

शिक्षा का असर गाँव-गाँव, शहर-शहर में बड़ी ही तेजी से दिखाई दे रहा है। हम अंदाजा नही लगा सकते कि शिक्षा की वजह से हमारा समाज कितना तेजी से प्रगति कर रहा है। इसका जीता जागता उदाहरण हमारे गाँव के इस किस्से में देखने को मिला।

(रचना त्रिपाठी)

Tuesday, May 19, 2009

घर में ब्लॉगेरिया का प्रकोप …भूल गये बालम!!!

मैने सुना था कि आइंस्टीन अपने घर का पता ही भूल जाया करते थे। आज मेरे घर भी कुछ ऐसा अजीबोगरीब हादसा हुआ। यहाँ कसूरवार भौतिकी की कोई उलझन नहीं थी। …शायद ब्लॉगरी रही हो इसके पीछे। पढ़कर आप भी पूछेंगे जैसे मैं पूछ रही हूँ-

“क्या ब्लॉगरी करते-करते ऐसा भी हो जाया करता है?”

भूल गये बालम आज श्रीमान जी सुबह अच्छे भले उठे। अपना दैनिक कार्य किया और स्टेडियम खेलने भी गये। अपने समय से ऑफिस को निकल पड़े। दोपहर में ऑफिस से फोन आया।

पूछने लगे, “वहाँ कम्प्यूटर टेबल पर मेरे चश्में का शीशा है क्या?”

मैं दोपहर की मीठी नींद से उठी, मेज पर टटोल कर देखा फिर जवाब दिया, “ यहाँ तो नहीं है? क्या हुआ?”

“देखो, शायद फ्रिज के ऊपर या उसके कवर वाली जेब में हो”

“अच्छा…!! …यहाँ भी नहीं है जी। …आखिर बात क्या है”

“ओफ़्फ़ो…! ठीक से ढूँढो न, ”

“कहाँ खोजूँ…? …एक ही शीशा है कि दोनो…?” “…और चश्मा कहाँ है?”

“वो तो मेरे पास है…” “ अच्छा देखो… बैडमिण्टन किट की ऊपरी जेब में तलाशो।”

अरे, वहाँ कहाँ पहुँच जाएगा…? ….लीजिए, यहीं है। लेकिन एक ही शीशा तो है?”

“चलो ठीक है…” उन्होंने फोन काट दिया। मैं बच्चों को लेकर फिरसे सुलाने चली गयी।

? ? ? ? ऐसा तो कभी नहीं हुआ था ? ? ? ?

शाम को जब ये ऑफिस से लौटे तो कुछ देर बाद मैंने चश्में के शीशे के बारे में जानना चाहा। जब पूरी कहानी मालूम हुई तो हम हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये।

हुआ यूँ कि इन्होंने धूप की वजह से ऑफिस के लिए पैदल न निकल कर स्कूटर से जाने की सोची और हमेशा की तरह आँखों को गर्म हवा से बचाने के लिये फोटोक्रोमेटिक चश्मा भी चढ़ा लिया। वो चश्मा जिसका एक शीशा बेवफाई करके सुबह-सुबह मेयो हाल में ही फ्रेम से अलग हो बैडमिन्टन-किट की जेब में दुबक गया था। मेरे श्रीमान जी को स्टेडियम से शीशाविहीन चश्मा लगाकर घर आने और फिरसे तैयार होकर ऑफिस जाने के समय दुबारा लगाते वक्त भी इस बात का पता नहीं चल पाया था।

बता रहे थे कि इन्हें ऑफिस में जब एक दो घण्टे का शुरुआती काम पूरा करने के बाद फुरसत मिली तब अचानक मेज पर रखे चश्में पर निगाह डालने पर अपनी भूल का ज्ञान हुआ… लिखने पढ़ने का काम तो ये बिना चश्में के ही करते हैं। केवल स्कूटर पर धूल, हवा और धूप से बचने के लिए ही लगाते हैं।

उसके बाद चश्में का बाँया शीशा अपने कार्यालय कक्ष में कई राउण्ड खोजते रहे। सारी फाइलें उलट-पलट कर देख डालीं। मेज कुर्सी के नीचे भी झाड़ू लगवाया। बॉस के कमरे में भी गये। वहाँ सबने मिलकर ढूँढा। सभी दराजें और रैक भी चेक कर लिए गये। इसी बहाने कम्प्यू्टर टेबल के पिछवाड़े जमी धूल भी साफ हो गयी। तीन चार चपरासी लगाये गये। ...लेकिन सब बेकार। अन्ततः नया शीशा लगवाने का निर्णय हुआ।

अब एक के चक्कर में दोनो शीशे नये लेने पड़ेंगे...। अचानक इन्हें सूझा कि एक बार घर पर भी पता कर लेना चाहिए। फोन पर डायरेक्शन देकर मुझसे खोज करायी गयी तो शीशा ऐसी जगह मिला जहाँ सबसे कम सम्भावना थी।

“तो क्या दो-दो बार स्कूटर चलाने पर भी काना चश्मा आपका ध्यानाकर्षण नहीं कर सका?”

“वही तो..., मैं भी हैरत में हूँ। मुझे पता क्यों नहीं चल सका?”

हँसते-हँसते मेरी हालत खस्ती हुई जा रही थी। तभी इन्होंने आखिरी बात बतायी-

“जानती हो, इसी बात का पता लगाने के लिए मैं ऑफिस से वापस आते वक्त भी यही चश्मा लगा कर आया हूँ। …शहर में स्कूटर की स्पीड इतनी तेज होती ही नहीं कि आँख पर हवा का दबाव महसूस हो। बिना नम्बर का सादा चश्मा ऐसी बेवकूफ़ी भी करा गया…”

“तो क्या बिलकुल अन्तर नहीं था दोनो आँखों में…?”

मुझे सबसे ज्यादा मजा तब आया जब इन्होंने बताया कि ध्यान देने पर एक आँख मे हवा लगती महसूस हो रही थी।

क्या आप इसे ब्लॉगेरिया नहीं कहेंगे?

दरअसल गलती मेरी ही थी। आज ऑफिस निकलते समय मैनें इन्हें ‘सी-ऑफ़’ नहीं किया था। शायद ‘किचेन गार्डेन’ में पानी लगा रही थी।

(रचना त्रिपाठी)

Thursday, May 14, 2009

मुकदमेंबाज की दवा

हमारे गाँव के उत्तर-पश्चिम कोने पर एक ब्राह्मण परिवार रहता है। जो वर्षों पहले कहीं बाहर से आये थे और इन्हें गाँव के बड़कवा बाबा के परिवार ने थोड़ी जमीन दे दी थी तबसे वहीं ये लोग घर बनाकर रहने लगे थे। इस परिवार में माँ-बाप के अलावा, दो बेटे और एक बेटी थी। बेटे बड़े हुए तो बड़े बेटे की शादी हो गई। वह पढ़ाई पूरी करने के बाद घर की खेती-बाड़ी कराने लगा। दूसरा बेटा वकालत की पढ़ाई करके वकील बन गया। लोकल कचहरी में चौकी लगा कर बैठने लगा।

उमेस उपधिआ वकील क्या बन गये गाँव में ही बवाल काटने लगे। कोई ऐसा बचा नहीं जिसके ऊपर उन्होंने मुकदमें का दाँव लगाने का प्रयास न किया हो। अब गाँव में लोगो के चेहरे पर आए दिन उदासी छायी रहती। हर एक दिन हो-हो हल्ला मचता कि आज किसी की बकरी इनके दरवाजे पर बंधी है तो किसी की भैंस। लोग गुहार लगाने बाबा के घर आते और गिड़गिड़ाना शुरु करते-

“…बाबा हमार भँइसिया ढांठर लेके जात बाटें”

“…क्यों और कौन?”

...बाबा, मोहन उपधिया; …हमार भँइसिया उनके दुअरिया पर जवन बेलवा के पेड़वा बा, ओही में से पत्ता खात रहे त मोहन खिसिया गईलें। …अउरी रोज-रोज धमकी देत बाटें कि उमेसवा वकील बन गईल बा। अब तहनी के बतावऽता… आपन चउआ-चापर, आ आपन लइका-संभार के राखऽजा। ...मालिक, आफ़त बसा देहनीं गांव में …जीयल काल कऽ देले बाने सों।…”

अब भला बाबा क्या कर पाते, शिकायत एक वकील के खिलाफ़ जो की जा रही थी। बड़े-बड़े गँवई विवाद की पंचायत चुटकी मे निपटा देने वाले बाबा यहाँ बेबस हो जाते। बाबा को क्या पता कि ये गाज उनके घर भी गिरने वाली है।

गाँव के वकील साहब अब रोज सबेरे-सबेरे अपने दरवाजे पर खड़े होकर किसी न किसी को मुकदमे की धमकी देते रहते। धीरे-धीरे बच्चों के झगड़े भी सामने आने लगे। गाँव वालों ने अपने-अपने बच्चों को हिदायत दे रखी थी कि वकील साहब के घर के बच्चों के साथ नही खेलना है। उनके साथ खेलने का मतलब होता झगड़ा और फिर मुकदमें को दावत।

वकील साहब की शादी अभी नही हुई थी । वे अपने बड़े भाई के बच्चों के लिए तो ‘सुपरमैन’ बन गये थे। बच्चे भी उन्हें चाचा के बजाय ‘छोटका पापा’ कह कर बुलाते थे। जो काम बड़का-पापा नही कर पाते, वो सारे काम छोटका-पापा पूरा करते। इनके घर के बच्चे किसी से भी बेहिचक लड़ाई कर सकते थे। इनको तो कोर्ट ने जैसे इजाजत दे रखी थी। खेल-खेल मे खुद तो बच्चों के साथ मार-पीट करते ही, अगर भूल कर भी किसी बच्चे ने इनके ऊपर हाथ उठा दिया, तब तो उसकी शामत आ जाती।…

कुछ ही देर में सारा गाँव वकील साहब के दरवाजे पर तमाशा देखने के लिए मौजूद रहता। उन बच्चों की माता जी और बड़का-पापा जोर-जोर से दहाड़ते,

“…तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे बच्चों को छूने की, …आने दो वकील साहब को, तुम लोगो का दिमाग ठिकाने आ जायेगा।”

जो-जो बच्चे उस खेल मे शामिल होते उनके घर वाले बड़का-पापा की घंटो मनौनी करते। …शाम होते ही बच्चे छोटका-पापा का बेसब्री से इंतजार करते। आज के नये शिकार की सूचना देने के लिए बेचैन रहते। …स्कूटर की आवाज सुनते ही घर वालों के चेहरे पर ऐसी खुशी झलकती, जैसे मानों वकील साहब के बरदेखउवा आये हों, और उन्हें कोई उपहार देकर गये हों। उनमें छोटका-पापा को झगड़े की बात सबसे पहले बताने की होड़ होती।

वकील साहब की मुकदमेबाजी की चपेट मे धीरे-धीरे ‘बाबा का घर भी आने लगा। छोटी-छोटी बात पर उनके घर के बच्चों को भी हाथ पकड़ कर उनके घर ले जाकर शिकायत करते। ये बच्चे भी कभी-कभार अपने ही घर वालों से मार खा जाते। …यह कार्यक्रम लम्बे समय तक चलता रहा। वकील साहब का आतंक दिन पर दिन बढ़ता रहा। धीरे-धीरे बाबा के नाती-पोते भी सयाने हो गये।

एक दिन बाबा के घर कुछ मेहमान आये थे। वकील साहब की भतीजियों का बाबा के घर आना-जाना लगा रहता था, बाबा के घर आयी हुई कुछ लड़कियों और वकील साहब की भतीजियों में कहा-सुनी हो गई, यह बात वकील साहब को रास नही आयी। सबेरे-सबेरे चले आये शिकायत लेकर। यह सारी बातें, बाबा का छोटा वाला नाती जो बचपन से यह सब देखते हुए बड़ा हुआ था उसको यह बात नागवार लगी। वह अचानक उठा और सांड़ की तरह वकील साहब की ओर झपट पड़ा। उसने वकील साहब का एक हाथ पकड़कर पीछे की ओर ऐंठ दिया और दहाड़ उठा,

“ …मुकदमा करना है तुम्हें, …चल, …मेरे उपर मुकदमा कर, …वर्षों से देख रहा हूँ तुझे,” वकील साहब अचानक हुए इस हमले के लिए तैयार न थे। सिट्टी-पिट्टी गुम थी। रक्षात्मक मुद्रा अपनाने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं बचा था।

बाबा के घर के बड़े लोगों ने किसी तरह वकील साहब को छुड़ाकर वहां से भगाया। तबसे कोई नया मुकदमा नहीं हुआ। गाँव वाले अब राहत में हैं, …और बाबा के नाती को लाख-लाख दुआएं देते हैं। अब वकील साहब का गाँव में आना और जाना पता ही नही चलता। …लगता है उन्होंने स्कूटर बेच दिया।

१.बड़कवा- गाँव का सर्वाधिक प्रतिष्ठित और प्रभावशाली परिवार

२.उमेस उपधिआ- उमेश उपाध्याय

३. चउआ-चापर- पालतू जानवर, गाय-भैंस-बैल आदि चौपाये

४.बरदेखउआ- लड़के से शादी के रिश्ते के लिए उसे (वर को) देखने आने वाले

(रचना त्रिपाठी)

Saturday, May 9, 2009

कानून के रक्षक या भक्षक... मानव या दानव?

पिछले दिनों शहर में डॉक्टर्स और वकीलों के बीच भिड़न्त हो गई। कारण ये कि दो महीने से एक वकील साहब अस्पताल में भर्ती थे, दुर्भाग्यवश ना जाने किस कारण से ये भगवान को प्यारे हो गये। वकीलों में डॉक्टरों के खिलाफ़ रोष पैदा हो गया और ये उस डॉक्टर के विरुद्ध धारा ३०२ में एफ़.आई.आर. कर डाले। यानि हत्या का मुकदमा।

दंगाई वकील

जगह- जगह नारेबाजी शुरू हो गई। …डॉक्टर भी भड़क गये। वकीलों के खिलाफ़ शहर के सारे डॉक्टर इकठ्ठे हो गये और धरना प्रदर्शन शुरु कर दिया। करीब तीन-चार सौ चिकित्सा कर्मी जिसमें कुछ पैरा-मेडिकल स्टॉफ़ भी मौजूद थे, सड़क पर निकल आए। डॉक्टर साहब लोग अपने तो पीछे खड़े रहे और सामने अपने स्टॉफ़ को लगाये रहे। दोनों पक्षों की तरफ़ से धुँआधार नारेबाजी के पटाखे छूटने लगे। धीरे धीरे इन पटाखों से आग लगनी शुरु हो गई। नतीजा ये हुआ दोनों पार्टियों के बीच हाथा-पाई और जूता-चप्पल का लेन-देन शुरु हो गया।

कुछ बौराए वकीलों के हत्थे चढ़ी एक नर्स। उनका झुंड उस महिला के उपर ऐसे टूट पड़ा मानों किसी मरी हुई बिल्ली पर चील-कौए झपट रहे हों। मानवता तार-तार हो गई। उस गरीब की कमजोर काया पर लात-घूसों की झड़ी लग गयी। शुक्र है कि उसकी प्राणरक्षा की गुहार कुछ सरकारी कर्मचारियों के कान तक पहुंच गयी और उसे बचा लिया गया।

ये इंसान थे या जानवर? ये भूल चुके थे कि इनका जीवन एक माँ का कर्ज है। मै पूछती हूँ, जिस वकील ने इस नर्स के पेट में लात मारी क्या उस समय उसे, उसकी माँ याद नही आयी? जिस वकील ने उसके सीने पर लात मारी क्या उसे अपनी बहन याद नही आयी? जिसने उसके बाल पकड़ कर घसीटा उसे अपनी बेटी याद नही आयी? ये वही कानून के पेशेवर है जो खुद कानून की इज्जत नही करते, जिनके आँख का पानी मर चुका है।

ऐसे दरिन्दों से कानून की रक्षा की उम्मीद क्या की जाय?

(रचना त्रिपाठी)

Tuesday, May 5, 2009

सब कुछ उल्टा-पुल्टा… पर अच्छा ही रहा।

आज रात की भयंकर आँधी ने मेरे घर की चार दिवारी को ढहा दिया। तूफ़ान ने किचेन गार्डेन को क्षत-विक्षत कर दिया। आधी रात को सोते वक्त दिवाल गिरने की आवाज सुनकर ही मन चिन्ताग्रस्त हो गया। मेरी सब्जी कैसे बचेगी..? …सवेरा होने का इन्तजार करते रात गुजरी।

….श्रीमानजी हमसे पहले ही बिस्तर से उठ गये थे। ….मैं भी उठने के बाद तुरन्त किचेन गार्डेन में पहुँची। देखा तो ये लगातार फ़ोन पर फ़ोन किये जा रहे हैं। ….इनके चेहरे से दीवार गिरने का दु:ख और मेरे श्रम से उगायी गयी साग-सब्जी के नुकसान होने की चिन्ता साफ़-साफ़ जाहिर हो रही थी।

लेकिन मुझे देखते ही वहाँ से मुस्कराते हुए अन्दर चले आये…। रोज की तरह चेहरे पर वेपरवाही का स्वांग रचते हुए मिठाई का डब्बा खोलकर टपा-टप एक वर्फ़ी और एक-दो बेसन के लड्डू मुँह में भर लिए।

मैंने पूछा, “चार दिवारी गिर जाने की इतनी खुशी हुई कि आज मंगलवार व्रत भी तोड़ दिया?

गलती की याद आयी तो मुंह बाये खड़े हो गये। …चलो कोई बात नही इतना तो चलता रहता है। बड़े हनुमान जी के मन्दिर का प्रसाद ही तो था।

…लेकिन मुझे देर हो रही है मैं खेलने जा रहा हूँ।

….अरे चाय तो पीते जाईए

…नही जी आज बहुत मिठाई खा लिया हूँ। चलता हूँ।

….डाक्टर ने कहा था क्या, सुबह-सुबह मिठाई खाने को…?

शायद इन्हें इस बात की चिन्ता सताये जा रही थी कि कहीं मैं इन्हें आज खेत में डन्डा लेकर खड़ा न कर दूं। पिछले तीन दिन से एक गाय हमारा गेट खोलकर भीतर आ जा रही थी और बैगन, नेनुआ और भिण्डी का काफी नुकसान कर चुकी थी। कुछ चरकर तो कुछ रौंदकर। गेट की सॉकल खराब हो गयी थी। इसे ठीक कराने की योजना बनायी जा रही थी तभी रात की आँधी ने और चिन्तित कर दिया।

 

उल्टा-पुल्टा
ढह गयी दीवार
उल्टा-पुल्टा (2) चर गयी गाय
उल्टा-पुल्टा (3)
बच गयी भिण्डी
उल्टा-पुल्टा (4)
दब गये पौधे

इनके मन की चिंता साफ़- साफ़ नजर आ रही थी। शायद इससे पीछा छुड़ाने के लिए इन्होनें जल्दी-जल्दी शॉर्ट्स-टीशर्ट चढ़ाया, कन्धे पर बैडमिन्टन किट लटकाया और स्कूटर की चाभी लेकर बाहर निकल गये। ….चाय बन गयी थी ….दौड़ कर देखा तो श्रीमानजी स्कूटर पर जमी धूल पोंछकर जाने की तैयारी में थे। बिना कंघी किये और बिना जूता पहने देखकर मैं समझ गयी कि मन ठिकाने पर नहीं है।

मैने कहा, “कम से कम जूता तो पहन ही लीजिए।”

महाशय मान गये स्कूटर बंद किए और मुस्कुराते हुए अन्दर आ गये। बचे हुए काम को पूरा करते हुए चाय भी पी लिए। पी.डब्ल्यू.डी. के जे.ई. साहब का फोन नहीं उठ रहा था। एक्सियन का उठ गया उन्हें दीवार की मरम्मत कराने का अनुरोध करते हुए ये बताना नहीं भूले कि काम तत्काल जरूरी है क्योंकि देर हुई तो श्रीमती जी की मेहनत पर पानी फिर जाएगा। अब बात हो जाने के बाद इन्हें थोड़ी राहत मिल गयी।

मुझे भी अच्छा लगा और मन मे बेहद खुशी भी हुई… और क्यों ना हो? मेरे श्रीमान जी मेरे बारे में इतना सोचते जो हैं…।

(रचना)

Friday, May 1, 2009

क्या हम सभ्य समाज में जी रहे हैं…?

डार्विन के अनुसार जैविक विकास के विभिन्न चरणों में जीवन संघर्ष के फलस्वरुप सर्वाधिक सफ़ल जीवन व्यतीत करने वाले सदस्य योग्यतम होते हैं। इनकी सन्तान भी स्वस्थ होती हैं जिनसे इनका वंश चलता रहता है।संघर्ष में जो अधिक सक्षम होते हैं वही विजयी होकर योग्यतम सिद्ध होते हैं। इसे हम ‘जंगल का कानून’ या ‘मत्स्य न्याय’ के नाम से जानते हैं। यहाँ विवेक के बजाय पाशविक शक्ति का महत्व अधिक होता है।

जंगल से बाहर निकल कर हम एक कथित ‘सभ्य समाज’ का निर्माण कर चुके हैं और वैज्ञानिक युग में प्रवेश कर चुके हैं। हमें ईश्वर ने दो हाथ-दो पैर और भला बुरा सोचने के लिये एक स्वस्थ मस्तिष्क दे रखा है। मैं समझती थी कि डार्विन का सिद्धान्त तो सिर्फ़ जानवरों पर लागू होता है। लेकिन देख रही हूँ कि इन्सान रुपी जानवर की बात भी अलग नहीं है जो चन्द पैसों की लालच में या अपने किसी स्वार्थ में या कभी-कभी केवल खेल-मनोरंजन में अपनों का ही कत्ल कर बैठता है।

मन सोचता है कि क्या हम एक सभ्य समाज में जी रहे हैं?

मैं कभी कभी यह सोचने पर मजबूर हो जाती हूँ कि क्या सचमुच हमारे देश में भाईचारा है?...आखिर कौन सा उदाहरण हम अपने आने वाली पीढ़ी के सामने पेश करेंगे? आये दिन समाचार पत्रों, पत्र- पत्रिकाओं में पढ़ने और टीवी पर देखने को मिलता है कि आज एक भाई ने अपने भाई को गोली मारी।….कारण क्या है, कभी एक बीघा जमीन तो कभी रोटी।….अभी तक यह सारी बातें हम निम्न वर्ग और मध्यम वर्ग में देखा-सुना करते थे। लेकिन अब तो यह सारी बाते उच्च वर्ग में भी देखने को मिलती हैं।

निम्न वर्गों में अभी भी शिक्षा की कमी, संस्कारहीनता और गरीबी-भुखमरी इसके कारण है। लेकिन… आखिर उन्हें क्या कमीं है जिनके पास करोड़ों की सम्पत्ति है। मुकेश अम्बानी और अनिल अम्बानी हमारी पीढ़ी को क्या सन्देश देते हैं। प्रवीण महाजन ने प्रमोद महाजन को गोली मारी… आखिर क्यों? इनके पास क्या कमी थी? क्या ये उच्च वर्गीय लोग हमारे आदर्श बन सकते हैं? संजय गांधी के मरने के बाद राजीव गांधी भी अपने अनुज की पत्नी और बेटे को अपने साथ नही रख सके। क्या यह हमें भाईचारा सिखाता है…?

जो इन्सान एक परिवार नही चला सकता वह एक देश चलाने का ठेका कैसे ले सकता है?

(रचना)